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जगन्नाथ रथयात्रा: जन-जन का पर्व, आस्था और समानता का प्रतीक

 

भारत के ओड़िसा राज्य के पुरी में हर साल आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को निकाली जाने वाली जगन्नाथ रथयात्रा दुनिया के सबसे भव्य और प्राचीन धार्मिक आयोजनों में से एक है। यह यात्रा भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण का एक रूप), उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा को समर्पित है। यह सिर्फ़ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि आस्था, सामाजिक समानता और प्रकृति से जुड़ाव का एक जीवंत प्रतीक है। 

रथयात्रा का महत्त्व और पौराणिक कथा

यह मान्यता है कि रथयात्रा में भाग लेने या भगवान के रथों को खींचने से व्यक्ति के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसे 100 यज्ञों के बराबर पुण्य फलदायी माना जाता है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार देवी सुभद्रा ने पुरी नगर देखने की इच्छा व्यक्त की थी। उनकी इच्छा पूरी करने के लिए भगवान जगन्नाथ और बलभद्र उन्हें रथ पर बैठाकर नगर भ्रमण के लिए निकले और रास्ते में अपनी मौसी देवी गुंडिचा के मंदिर में कुछ दिनों के लिए ठहरे। तभी से, इसी घटना की याद में हर साल यह रथयात्रा निकाली जाती है, जहाँ भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा तीन विशाल रथों पर सवार होकर अपने मुख्य मंदिर से गुंडिचा मंदिर जाते हैं, और सात दिन वहाँ रहने के बाद वापस लौटते हैं। 

रथों का निर्माण और विशेषताएँ

रथयात्रा के लिए हर साल तीन अलग-अलग भव्य रथों का निर्माण किया जाता है, जिन्हें भक्तों द्वारा खींचा जाता है:

भगवान जगन्नाथ का रथ: इसे नंदीघोष या गरुड़ध्वज कहते हैं। इसका रंग लाल और पीला होता है और यह तीनों में सबसे बड़ा (लगभग 45.6 फ़ीट ऊंचा) होता है। 

बलभद्र का रथ: इसे तालध्वज कहते हैं। इसका रंग लाल और हरा होता है। 

सुभद्रा का रथ: इसे दर्पदलन या पद्म रथ कहते हैं। इसका रंग काला/नीला और लाल होता है। 

इन रथों को पूरी तरह से लकड़ी से बनाया जाता है और हर साल नए सिरे से निर्मित किया जाता है, जो जीवन के नवीनीकरण और चक्र का प्रतीक है। 

रथयात्रा की अनूठी परम्पराएँ

जगन्नाथ रथयात्रा अपनी कुछ अनूठी परंपराओं के लिए भी प्रसिद्ध है:

छेरा पहरा: रथयात्रा से पहले, पुरी के राजा (या उनके प्रतिनिधि) स्वयं सोने की झाड़ू से रथों के आगे के मार्ग को साफ़ करते हैं। यह परंपरा इस बात का प्रतीक है कि भगवान के सामने सभी समान हैं, राजा और रंक के बीच कोई भेद नहीं। 

अधूरी मूर्तियाँ: भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ अधूरी हैं, जिनके हाथ-पैर पूरे नहीं बने हैं। इसके पीछे मान्यता है कि देवशिल्पी विश्वकर्मा ने एक शर्त रखी थी कि मूर्ति बनाते समय उन्हें कोई देखेगा नहीं, लेकिन राजा ने उत्सुकतावश दरवाज़ा खोल दिया, जिससे मूर्तियाँ अधूरी रह गईं। तब आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। 

नवकलेवर: हर 12 से 19 वर्षों में, जब ‘अधमास’ या अतिरिक्त माह होता है, तो पुरानी मूर्तियों को बदलकर नई मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं। इस प्रक्रिया को ‘नवकलेवर’ कहते हैं, जो आध्यात्मिक कायाकल्प का प्रतीक है। 
सामाजिक समरसता: यह यात्रा सामाजिक समानता की मिसाल है। किसी भी जाति, धर्म या वर्ग का व्यक्ति रथ खींच सकता है, जो एकता और भाईचारे का संदेश देता है। 

जन-जन का उत्सव

लाखों की संख्या में श्रद्धालु देश-विदेश से पुरी आते हैं और रथों की रस्सियों को खींचने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। यह दृश्य भक्ति, उत्साह और समर्पण से भरा होता है। लोग भजन-कीर्तन करते हुए रथों के साथ चलते हैं, और पूरा पुरी नगर ‘जय जगन्नाथ’ के उद्घोष से गूँज उठता है। 

जगन्नाथ रथयात्रा सिर्फ़ एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक महापर्व है जो भारतीय विरासत की गहराई और आध्यात्मिकता की जीवंतता को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि कैसे आस्था, समानता और सामूहिक भागीदारी एक समाज को एकजुट कर सकती है। 

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