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बोन्साई वट हुए अब


यातनाओं के भँवर में
आज डूबा आदमी
कौन इसको बचाए? 
 
गुमशुदा तस्वीर लेकर
खोजता है स्वयं को। 
हर शहर हर गली द्वारे
पुष्ट करता वहम को। 
शब्द कोलाहल बने हैं
भाव संवेदन विमुख। 
दूसरे के दुःख में क्यों
मन तलाशे विरल सुख। 
 
हौसलों के पंख टूटे
आँख में सहमी नमी
घूमते हम डबडबाये। 
 
है ज़मीं उर्वर मगर अब
बीज ऊसर हो गए। 
टूटते संकल्प मन के
धूल-धूसर हो गए। 
कर्म की चौड़ी सड़क अब
रेत की पगडंडियाँ हैं। 
सत्य का बाज़ार ओढ़े
झूठ की जन मंडियाँ हैं। 
 
लिए फिरते खोखला मन
प्रेम की अंतस कमी
घूमते है तन सजाये। 
 
झर रहे पत्ते निरंतर
उम्र की सूखी लताएँ। 
काग़ज़ी सी हो गईं सब
गंधवाही वीथिकाएँ। 
शहर चुपसे गाँव सूने
मनुज ख़ाली कुआँ है। 
बोनसाई वट हुए अब
वेदनाओं का धुआँ है। 
 
सूखती रिश्तों की सरिता
धार में काई जमी
कौन इसको छुटाए? 

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