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….तो कैसे विश्वास करोगे

जिया जिसे मैं वह गाऊँ

तो भी तुम हो संदेह जताते
अनदेखी-अनसुनी कहूँगा,

तो कैसे विश्वास करोगे !

रात किसी विधि सो पाया जो थपकी-लोरी से माँ की
सुबह उसी नाबालिग के हाथों में होती है बाँकी
गर विश्वास न हो तो मेरे गाँव चलो हे शहर निवासी


दिन ही तुम्हें दिखेंगे तारे,

उल्टी-उल्टी साँस भरोगे !

दुनियाँ उतनी सुखी नहीं, तुम जीते हो जितने सुख से
लाखों भूखे, लाखों प्यासे लाखों के ख़ून बहे मुख से
हे धनिक न सह पाओगे तुम वह दुख किसान मजदूरों का


दे दोगे मुझको ज़हर या कि फिर

डाल स्वयं गलफाँस मरोगे !

मिट्टी से परिचय न तुम्हारा रिश्ता कोई नहीं खेत से
अन्न जिसे तुम सुबह शाम खाते हो, मिलता नहीं रेत से
तिनके-तिनके हेतु बहाता ख़ून-पसीना है किसान


और कहूँगा तो तुम मेरी
बातों का परिहास करोगे !

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