अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

राघवेन्द्र पाण्डेय मुक्तक 2

1.
देह पर अपने भले ही सर नहीं रहे
पर याद रखना दोस्तों, तेवर वही रहे
हम हों भले जंगल में, रोटी घास की खायें मगर
जो घर हमारा है, हमेशा घर वही रहे
2.
लाल-पीला या हरा से रंग अपना है अलग
इस जहाँ को देखने का ढंग अपना है अलग
पीठ में छुरा डुबोकर जीत के इस जश्न पर थू
सामने का वार हूँ मैं, जंग अपना है अलग
3.
प्रण है स्वार्थसिद्धि की खातिर
दरबारों का चारण नहीं बनूँगा मैं
रण में हार मिले पर छल से
किसी हार का कारण नहीं बनूँगा मैं
4.
बिना प्रयोजन जो कुछ है उन सब पर ताला दे दो
देशद्रोह के अपराधी को ...........देश-निकाला दे दो
भरे हुए लोगों के घर को भरना अब तुम छोड़ो
पिचके हुए पेट को आओ चलो निवाला दे दो
5.
जिसने बचपन को दुत्कारा उसे जवानी मत दो
भ्रष्टतंत्र की अमरबेल को फिर से पानी मत दो
जीवन में अपने बहुतेरे काम पड़े हैं यारों
फ़िरकों के बहकावे में आकर कुर्बानी मत दो
6.
जहाँ के लोग खुशमिज़ाज़ दिल से ज़िंदा हैं
ये शख़्स भी तो उसी शहर का बाशिंदा है
जान बाज़ुओं में ना हो, पंख में भी ना हो
पर हौंसलों से उड़ेगा ये जो परिंदा है
7.
इस शहर में हर तरफ़ मची अंधेरगर्दी है
आदमी ने दुनियाँ की ये कैसी हालत कर दी है
आबरू लुटने लगी उनके ही हाथों तो क्या करें
जिनके कंधों पे सितारा बदन पे वर्दी है
8.
जाना था ख़ुरज़ा, ख़रगौन पहुँचता है
ख़बरों की सच्चाई तक कौन पहुँचता है
बोल-बोल कर, चिल्लाकर थक-हार गये
तब जाना मंज़िल तक मौन पहुँचता है
9.
मैं एक का ठिकाना हूँ, दूसरे का घर हूँ
ख़ुद में हूँ तीसरा मैं, चौथे का पक्षधर हूँ
मैं हूँ नहीं किसी का, सब हैं हमारे अपने
तिनका हूँ डूबते को, तैराक को भँवर हूँ

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

किशोर साहित्य कविता

कविता-मुक्तक

गीत-नवगीत

ग़ज़ल

कविता

अनूदित कविता

नज़्म

बाल साहित्य कविता

हास्य-व्यंग्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं