लेकर क्या करोगे
काव्य साहित्य | कविता राघवेन्द्र पाण्डेय 'राघव'21 Feb 2019
प्राप्त करने को जिसे दिन भर लड़े
वह आ गयी रोती हुई सी शाम, लेकर क्या करोगे
हम प्रथम किस भाँति हों, विजयी बनें
बस एक दावे के लिए
युद्ध सा जीवन हुआ, सजना-सँवरना हर तरफ
केवल दिखावे के लिए
मिल गया ग़र तुम्हें ईनाम, लेकर क्या करोगे
साँस अटकी है सभी की, क्या पता
किस ओर दंगा चल पड़े
आपसी रंजिश अभी उन्माद का ले रूप
बह जाए कि नंगा चल पड़े
सर कटा औ’ सुर मिटा अंज़ाम लेकर क्या करोगे
श्रम नहीं तो शक्ति कैसे हो सकेगी
लोग सारे हो रहे बीमार
स्वार्थ के वश में हुए इस भाँति, देखो
टूटते अब रोज़ ही परिवार
चैन लुटकर जो मिले आराम लेकर क्या करोगे
स्वार्थ में सुख हेतु जन-जन से
कलह अब ठानकर
मैं पूछता फिर-फिर, कहो
माँ-बाप का अपमान कर
घर में लगा कर आग, चारों धाम लेकर क्या करोगे
आदमी से आदमी की दूरियाँ चितकाबरी
हम अनकही कुछ बुदबुदाते
टोलियों मे बँट गए जो भी नमाज़ी औ’ पुजारी
कह रहा उनसे कबीरा गीत गाते
तुम ख़ुदा से खार खाये राम लेकर क्या करोगे
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