मानव बनूँ
काव्य साहित्य | कविता राघवेन्द्र पाण्डेय 'राघव'4 Feb 2019
प्रश्न बहुतेरे
मैं शतशः अनुत्तरित
सभी सबसे पूछते हैं
मैं ख़ुद से पूछता हूँ
अपना लक्ष्य/अपनी निजता
बेधते हैं मुझे
प्रश्नमाप के ओछे विकल्प
डॉक्टर, इंजीनियर, व्यवसायी
क्या बनना चाहते हो
क्या है तुम्हारे शोध का विषय
साध रहे निशाना किसे मानकर चिड़िया की आँख
नहीं रहा अध्यवसाय
‘अध्ययन’ बना व्यवसाय
मैं खड़ा रहा सवालों की भीड़ में
चुप्पी साधे
बना रहा अजायबी प्राणी
खुद को ढूँढता/ सुप्त को झकझोरता
स्वयं के विकल्प पर
छिड़कता संजीवनी रस
लगने लगे कहकहे
पूछा गया बार-बार
मुझसे मेरा इरादा/मेरी भिज्ञता
मेरे अंदर का सबल जीव अचानक चिल्लाया
मैं बनना चाहता हूँ ‘मानव’
नहीं भेदना चाहता किसी चिड़िया की आँख
नहीं छीनना चाहता उसकी दृष्टि
जिससे देखती है वह
जीव को जीवन से प्यार करते
मेरे शब्द आलोचित हुए
मैं बना पूरी भीड़ में हँसी का पात्र
मरेगा भूखों एक का अनुभव बोला
दूसरे ने ताना दिया- किसी अन्य ग्रह का प्राणी है
बाकी ने सामूहिक व्यंग्य उगला-
भाइयों,
दर छोड़ने से पहले ज़रूर पाओ इनका आशीर्वाद
आखिर ऐसे रश्मीरथी
आजकल मिलते ही कहाँ हैं
सबने एक पर हँसा.......
........और एक ने सब पर
सभी चले गए मुझे छोड़कर
किन्तु मैंने,
स्वयं को थामे रखा
मैं अनन्य, मूक
बचा शेष
स्वत्व की रक्षा में
स्वयं का साक्षी स्वयं का संबल
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