ज़माना मुझको आँखों पर
काव्य साहित्य | कविता राघवेन्द्र पाण्डेय 'राघव'23 Feb 2019
ज़माना मुझको आँखों पर बिठाता ‘सर’ समझता है
ये तू है जो न जाने क्यूँ मुझे कमतर समझता है
उसे दिल जान से मैं चाहती हूँ पूजती भी हूँ
जिसे तू कुछ नहीं बस रंग चुटकी भर समझता है
मैं तुझको देवता मानूँ यही कारण है तू मुझको
हमेशा धूल पैरों की या फिर चाकर समझता है
बड़े अरमान से मैंने तुम्हें अपना बनाया था
ये क्या मालूम था के तू मुझे बिस्तर समझता है
उसे जाने दो अपनी राह करने दो वो जो चाहे
वो आदम जात है जो खाके बस ठोकर समझता है
ये मेरा चित्त है जिसमें कि दोनों साथ रहते हैं
अभी अल्लाह-ओ-अकबर तो अभी हर-हर समझता है
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