राघवेन्द्र पाण्डेय मुक्तक 4
काव्य साहित्य | कविता-मुक्तक राघवेन्द्र पाण्डेय 'राघव'1 Sep 2019
1.
कहीं पास तो और कहीं हम फ़ेल हुए
कहीं मिलाया मेल, कहीं बेमेल हुए
बीत गया जीवन फ़ितरत में यारो
कहीं ख़रीदा और कहीं ख़ुद सेल हुए
2.
झोंपड़ी में भी मैं घर होके जिया हूँ
डर के साये में निडर होके जिया हूँ
हर वक़्त जीने के बहाने ढूँढ़ लेता हूँ
तलहटी में भी शिखर होके जिया हूँ
3.
उनके लिए जीवन हमारा तर्क बस है
अपने लिए जीवन हमारा नर्क बस है
वो अपने आरज़ू सँभालते हैं, हम आँसू अपने
हमारी ज़िंदगी में कुल यही तो फ़र्क बस है
4.
पद-प्रतिष्ठा और धन-दौलत न चाहूँ, यार मेरे
है नहीं ख़्वाहिश कोई मुझको ख़ज़ाने की
देश पर सब कुछ निछावर कर सकूँ, यह प्रण लिया था
उम्र थी जब खेलने की और खाने की
5.
हो न हो यह ज़हर हो जिस पर लुभाए जा रहे हम
सब्जियाँ जो टोकरी में इतनी ताज़ी हैं
नाम चुनकर रख लिया ‘आदर्श’ तो समझो कि
इसके पीठ पीछे कुछ न कुछ फिर कलाबाज़ी है
6.
इधर घी-दूध खा-पीकर चला जिम में युवा होकर
दिखाने के लिए सबको, मसल तैयार करता है
उधर करके अथक श्रम, खेत में अपना बदन बोकर
कृषक सबके लिए अपनी फ़सल तैयार करता है
7.
आदमी का चेहरा आज कैसा है
वाह रे, अपना समाज कैसा है
देश का सर जिसने झुकाया, शर्मसार किया
उसके ही सर पे ये ताज कैसा है
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