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जड़ों से जुड़ना

 

गाँव के छोर पर बसा था रामलाल का पुराना, पुश्तैनी घर। उसकी दीवारें भले ही चूने से पुती थीं, पर उनमें बरसों के अनुभव और परंपरा की महक बसी थी। रामलाल, जिसकी कमर अब हल्की-सी झुकने लगी थी और आँखों पर चश्मा टिक गया था, सुबह-सुबह अपनी चारपाई पर बैठ, हुक्के की गुड़गुड़ाहट के साथ दिन की शुरूआत करते। 

उन्हें अपने खेतों से प्रेम था, उस मिट्टी से, जहाँ उनके पुरखों की मेहनत का पसीना समाया था। 

उनका बेटा, सुरेश, शहर से पढ़कर लौटा था। उसकी आँखों में चमक थी, होंठों पर अंग्रेज़ी के शब्द और दिमाग़ में नए ज़माने के आइडिया। वह गाँव को बदलना चाहता था, खेतों को आधुनिक बनाना चाहता था। 

”बाबूजी, ये पुराने ढर्रे से कब तक काम चलेगा? ट्रैक्टर लाओ, नई खाद डालो, हाइब्रिड बीज बोओ!” सुरेश कहता, तो रामलाल अपनी ठुड्डी खुजाते हुए कहते, “बेटा, ये धरती माँ है। इसको मशीन से नहीं, प्यार से सींचा जाता है। जो बीज अपने पुरखों ने बोए, वही असली होते हैं।”

यह संवाद रोज़ का था। सुरेश को लगता, बाबूजी बदलते समय को समझ नहीं पा रहे। रामलाल को लगता, सुरेश अपनी जड़ों को भूल रहा है। 

एक बार गाँव में भयंकर सूखा पड़ा। कुएँ सूख गए, फ़सलें मुरझाने लगीं। सुरेश ने शहर से विशेषज्ञों को बुलाया, पानी बचाने के नए तरीक़े बताए। रामलाल अपने पुराने ज्ञान पर अड़े रहे। उन्होंने गाँव के बुज़ुर्गों को इकट्ठा किया, पुराने तालाबों की सफ़ाई का काम शुरू करवाया, जिनकी किसी को सुध ही नहीं थी। 

सुरेश ने कहा, “बाबूजी, ये सब बेकार है। पानी है ही नहीं, तो तालाब में क्या भरेंगे?” 

रामलाल ने शांत स्वर में कहा, “पानी नहीं है, तो क्या हुआ? उम्मीद तो है। और यह उम्मीद ही तो हमें जोड़ती है, बेटा।”

कई दिन तक काम चला। सूरज सिर पर तपता, लेकिन रामलाल और उनके साथियों का हौसला नहीं टूटा। सुरेश भी मन ही मन परेशान था, पर उसने अपने पिता को रोका नहीं। 

एक दिन, अचानक तेज़ बारिश हुई। इतनी तेज़ कि गाँव भर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। पुराने तालाब लबालब भर गए। वह पानी सिर्फ़ सूखा नहीं मिटा रहा था, बल्कि पीढ़ियों के बीच की दूरी को भी कम कर रहा था। 

बारिश थमी तो रामलाल ने सुरेश की तरफ़ देखा। सुरेश की आँखों में आँसू थे। उसने अपने पिता के पैर छू लिए, ”बाबूजी, आप सही थे। कुछ चीज़ें सिर्फ़ किताबों से नहीं, अनुभव से आती हैं।”

रामलाल ने अपने बेटे के सिर पर हाथ फेरा, ”बेटा, नई सोच बुरी नहीं। पर अपनी मिट्टी को कभी मत भूलना। ये पुराना और नया जब मिल जाए, तो वो सबसे मज़बूत पुल बनता है।”

उस दिन के बाद, सुरेश ने अपनी आधुनिक सोच को रामलाल के पारंपरिक ज्ञान के साथ जोड़ दिया। उन्होंने मिलकर खेतों में नए तरीक़े अपनाए, लेकिन धरती का सम्मान करना नहीं भूले। गाँव में ख़ुशहाली लौट आई। अब रामलाल हुक्का पीते हुए मुस्कुराते, और सुरेश उनके बग़ल में बैठकर नए-नए बीज के बारे में बताता। पुरानी पीढ़ी ने नई को राह दिखाई, और नई ने पुरानी को सम्मान दिया। दोनों ने मिलकर एक ऐसा सामंजस्य स्थापित किया, जो गाँव के लिए एक मिसाल बन गया, जैसे दो नदियाँ मिलकर एक विशाल धारा बन जाती हैं। 

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