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स्वर नहीं, सुर मिलना चाहिए

 

“स्वर नहीं, सुर मिलना चाहिए“— यह कथन मात्र एक भाषाई संयोजन नहीं, बल्कि जीवन की अनेक परतों को छूने वाला गहन विचार है। आज हमारे गाडरवारा की पहचान प्रसिद्ध विचारक, साहित्यकार एवं बहुप्रशंसित अभिनेता आशुतोष राना; हमारे आशु भाई से मुलाक़ात हुई। उन्होंने इस पंक्ति के माध्यम से जिस आध्यात्मिक और सामाजिक समरसता की ओर संकेत किया है, वह समकालीन युग में अत्यंत प्रासंगिक है। हालिया मुलाक़ात में उन्होंने इस कथन की जो व्याख्या प्रस्तुत की, वह केवल कला या संगीत की सीमाओं तक सीमित नहीं, अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामंजस्य की आवश्यकता को उद्घाटित करती है। 

स्वर और सुर का अंतर:

स्वर, व्यक्ति की अपनी स्वतंत्र ध्वनि है— वह जो उसे विशिष्ट बनाती है, उसकी पहचान है। जबकि सुर, वह सामंजस्य है जो सभी स्वरों को एक साथ लयबद्ध करता है। सुर के बिना स्वर केवल शोर है, पर जब स्वर सुर में बदलता है, तो वह संगीत बन जाता है। आशुतोष राना ने स्पष्ट किया कि समाज में भी यदि प्रत्येक व्यक्ति केवल अपना ‘स्वर’ उच्चारित करता रहेगा, तो केवल मतभेद और कलह उत्पन्न होंगे। लेकिन यदि हम सभी अपने स्वर को सुर में पिरो सकें— अर्थात् परस्पर तालमेल और सामंजस्य स्थापित करें— तो सामाजिक जीवन एक मधुर संगीत बन सकता है। 

यह विचार साहित्यिक दृष्टिकोण से भी गहराई लिए हुए है। लेखक या विचारक अपने विचारों को स्वर के रूप में प्रस्तुत करता है, परन्तु जब वह विचार सामाजिक चेतना से जुड़ता है, तभी वह सार्थक ‘सुर’ बनता है। यही कारण है कि श्रेष्ठ साहित्य वह होता है जो समाज के भीतर संवाद उत्पन्न करता है, न कि केवल विरोधाभास। 

राजनीति, धर्म, विचारधारा या परिवार— हर क्षेत्र में आज स्वरों की प्रचुरता है पर सुरों की कमी है। आशुतोष राना का यह कथन हमें यह याद दिलाता है कि विचारों की स्वतंत्रता आवश्यक है, पर उसकी अभिव्यक्ति में जब तक संयम, समरसता और संवेदनशीलता नहीं होगी, तब तक वह केवल संघर्ष का कारण बनेगी। 

व्यक्तिगत जीवन में भी यह सूत्र अत्यंत उपयोगी है। पति-पत्नी, अभिभावक-बच्चे, मित्र, सहकर्मी— सभी के बीच स्वरों की भिन्नता स्वाभाविक है, किन्तु इन स्वरों को सुर में पिरोना ही संबंधों की सच्ची सार्थकता है। राष्ट्रीय जीवन में भी यह विचार अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। विभिन्न जाति, भाषा, संस्कृति और धर्मों से युक्त भारत तभी एकता का प्रतीक बनता है जब यह विविध स्वर मिलकर सुर बनाते हैं। 

आशुतोष राना न केवल एक अभिनेता हैं, बल्कि एक चिंतक हैं जिनकी बातें केवल अभिनय की सीमाओं में नहीं बंधतीं। “स्वर नहीं, सुर मिलना चाहिए” उनका यह कथन, एक समरस, संवादशील और संवेदनशील समाज की आवश्यकता को रेखांकित करता है। यह विचार हमें अपने भीतर झाँकने को प्रेरित करता है— क्या हम केवल अपना स्वर ही मुखर कर रहे हैं, या किसी समग्र सुर का हिस्सा बन रहे हैं? 

यह आलेख केवल एक कथन की व्याख्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक आह्वान है—जहाँ प्रत्येक स्वर सुर बनकर गूँजे, और जीवन एक मधुर रागिनी बन जाए। 

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