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साहित्य में विज्ञान लेखन

विज्ञान उन सभी मनोवृत्ति के तरीक़ों को जुटाता है जो कि सारभूत रूप में संवेदनाओं और मनोभावों के विपरीत हैं। विज्ञान के कड़े नियमों का अनुराग और निष्ठा, मित्रता, सौन्दर्य शास्त्र के अनुभवों वेदना और हर्ष की भावनाओं, बुद्धि और मनोवृत्ति, ख़ुशी और करुणा, उदारता, प्रतिष्ठा, आत्म-सम्मान, मृदुता, सहानुभूति, शिष्टाचार की बहुलता, उत्तेजना व लगनशीलता आदि का कोई भी मूल्य नहीं हैं। अब प्रश्न उठता है कि ये सारे भाव साहित्य के अभिन्न अंग हैं तो फिर किसी साहित्य को विज्ञान साहित्य की कोटि में रखने की कसौटी क्या हो? क्या केवल वैज्ञानिक खोजों, उपकरणों, नियम, सिद्धांत, परिकल्पना, तकनीक, आविष्कारों आदि को केंद्र में रखकर कथानक गढ़ लेना ही विज्ञान साहित्य है? विज्ञान साहित्य का लक्ष्य बच्चों के मानस में विज्ञान-बोध का विस्तार करना है, ताकि वे अपनी निकटवर्ती घटनाओं का अवलोकन वैज्ञानिक प्रबोधन के साथ कर सकें। वैज्ञानिक खोजों, आविष्कारों का यथातथ्य विवरण विज्ञान साहित्य नहीं है। वह विज्ञान पत्रकारिता का विषय तो हो सकता है, विज्ञान साहित्य का नहीं। कोई रचना साहित्य की गरिमा तभी प्राप्त कर पाती है, जब उसमें समाज के बहुसंख्यक वर्ग के कल्याण की भावना जुड़ी हो। विज्ञान लेखन को ख़ासकर हिंदी में जो आदर मिलना चाहिए था, वह अभी नहीं मिल सका है। 

ऐसा इसलिए भी है कि भारतीय साहित्यकार इस विधा को शुरू से ही गम्भीरतापूर्वक न लेकर इसे फंतासी, अजीबोग़रीब कहानियों, जादू टोने, बच्चों की कहानियों के इर्द-गिर्द एक हाशिये का साहित्य ही मानते रहे और इसे उच्च स्तरीय, मानव समाज के क़रीब के साहित्य की श्रेणी से अलग हल्का-फुल्का साहित्य मानने के सहज बोध की अभिजात्य सोच से ग्रस्त रहे हैं। 

आधुनिक विज्ञान लेखन:

मेरी शैली ने (1789-1851) “फ्रेन्केन्टाइन” के रूप पहली विज्ञान फिक्शन को जन्म दिया। पश्चिमी विज्ञान कथा का वास्तविक शंखनाद प्रसिद्ध अमेरिकन लेखक, कवि, एडगर एलन पो द्वारा “बैलून होक्स” के रूप में 1844 ई में किया गया था। इस कथा के कारण एडगर एलन पो प्रथम विज्ञान कथाकार के रूप में चर्चित ही नहीं हुए वरन् अमेरिकन विज्ञान कथा पत्रिका “अमेज़िंग स्टोरीज़” के विश्व ख्याति प्राप्त विज्ञान लेखक एवं इस पत्रिका के संपादक ह्यूगो गर्न्सबैक ने उन्हें “फ़ादर ऑफ़ साइन्टीफ़िक्शन” माना था। वास्तव में इसी शब्द का संशोधित रूप ही “साइंस फ़िक्शन”है। प्रख्यात डेनिश कथाकार हांस एंडरसन ने बच्चों के लिए परीकथाएँ लिखते समय अद्भुत कल्पनाओं की सृष्टि की थी। एच.जी. वेल्स की विज्ञान फंतासी ‘टाइम मशीन’ भी रचनात्मक कल्पना की देन है। तदनुसार ‘विज्ञान गल्प’ ऐसी काल्पनिक कहानी को कहा जा सकता है, जिसका यथार्थ से दूर का रिश्ता हो, मगर उसकी नींव किसी ज्ञात अथवा काल्पनिक वैज्ञानिक सिद्धांत या आविष्कार पर रखी जाए। 

भारत में विज्ञान लेखन:

मूर्धन्य वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र बसु द्वारा बंगाली की प्रथम विज्ञान कथा “पालतक तूफान” 1897 ई. में भारत में प्रकाशित हुई थी। 

बंगाली भाषा के, बंग्ला साहित्य की भाँति मराठी भाषा का भी साहित्य अतीव समृद्ध है परन्तु इस भाषा की प्रथम विज्ञान कथा ‘तरचेहास्य’ 1915 में प्रकाशित हुई थी। इन दोनों कथाओं में विज्ञान का संम्पुट था। ‘पलातक तूफान’ (तूफ़ान पर विजय) सरफेस टेंन्शन पर आधारित थी तो तरचेहास्य (तारे का रहस्य) तारे के विज्ञान सम्मत पक्ष से संबंधित थी। हिंदी में विज्ञान गल्प लेखन की नयी सरणि निर्मित की। ‘पीयूस प्रवाह’ पत्रिका में 1884-88 के मध्य धारावाहिक रूप से इसका प्रकाशन हो चुका था। ‘आश्चर्यवृत्तांत’ विशुद्ध रूप से विज्ञान गल्प था जो तिलस्मी और जासूसी प्रभावों से सर्वथा उन्मुक्त था। हिन्दी की प्रथम लम्बी विज्ञान कथा “आश्चर्य वृत्तान्त”4 जो साहित्याचार्य पं. अम्बिकादत्त व्यास (1858-1900) द्वारा विरचित तथा उन्हीं के समाचार पत्र “पीयूष प्रवाह” में 1884 से 1888 तक के अंकों में प्रकाशित होती थी। 

विज्ञान के हिंदी लेखक:

देश में हिन्दी में विज्ञान लेखकों की कमी नहीं हैं परन्तु लेखकों के इस विशाल समुदाय का कोई राष्ट्रीय संगठन नहीं है। क़रीब 3500 से अधिक हिन्दी में विज्ञान लेखक हैं जिनमें 150 महिलाएँ हैं तथा 8000 हज़ार से भी अधिक विज्ञान संबंधी पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। हिन्दी में विज्ञान की पाठ्य पुस्तकें लिखने वाले और प्रतियोगिता वाली पत्रिकाओं के लिए लगातार लिखते रहते हैं, वे हाई स्कूल से लेकर महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों के परिसरों तक व्याप्त हैं। यह कहना मुश्किल है कि इनकी संख्या कितनी होगी किन्तु एक तरह से ये भी विज्ञान लेखक ही हैं। आज तक हिन्दी में विज्ञान लेखकों की कोई निर्देशिका भी प्रकाशित नहीं हुई ताकि लेखकों का आपसी पत्र व्यवहार अथवा सम्पर्क स्थापित करने का क्रम प्रारम्भ हो जाता। हर्ष की बात है कि हिन्दी भाषा में विज्ञान की पत्रिकाओं का अवश्य विस्तार हुआ है जो विज्ञान को लोकप्रिय बनाने की दिशा में सक्रिय हैं। कुछ मुख्य पत्रिकाएँ निम्नानुसार हैं:

विज्ञान (इलाहाबाद), संदर्भ (होशंगाबाद), स्रोत (भोपाल), विज्ञान चेतना (जयपुर), विज्ञान आपके लिए (गाज़ियाबाद), सामयिक नेहा (गोरखपुर) विज्ञान भारती प्रदीपिका (जबलपुर)। इसके अतिरिक्त विज्ञान प्रगति, विज्ञान लोक, विज्ञान जगत, अविष्कार तथा विज्ञान गरिमा सिंधु आदि पत्रिकाएँ भी उल्लेखनीय हैं। वैज्ञानिक साहित्य में अपना बहुमूल्य योगदान देने वाले विज्ञान लेखन के पुरोधाओं को जैसे स्वामी सत्यप्रकाश, डॉ. गोरख प्रसाद, डॉ. फूलदेव सहाय वर्मा, डॉ. बृजमोहन, डॉ. निहालकरण सेठी, डॉ. शिवगोपाल मिश्र, गुणाकार मुले, डॉ. रमेश दत्त शर्मा आदि को कैसे भूला जा सकता है। इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक साहित्य सृजन के अन्य सशक्त हस्ताक्षर हैं सर्वश्री प्रेमचंद श्रीवास्तव, गणेश कुमार पाठक, जगनारायण, डॉ. रमेश बाबू, राम चन्द्र मिश्र, विजय चितौरी, आइवर यूशियल, इरफान ह्यूमेन, राय अवधेश कुमार श्रीवास्तव, डॉ. दीपक कोहली, डॉ. डी. डी. ओझा, विश्वमोहन तिवारी, डॉ. विष्णु दत्त शर्मा, डॉ. देवेन्द्र कुमार राय, देवेंद्र मेवाड़ी तथा डॉ. श्रवण कुमार। 

विज्ञान लेखन का आधार:

विज्ञान लेखन की कसौटी उसका मज़बूत सैद्धांतिक आधार है। चाहे वह विज्ञान कथा हो या गल्प, उसके मूल में किसी वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा ऐसी परिकल्पना को होना चाहिए जिसका आधार जाँचा-परखा वैज्ञानिक सत्य हो। अपनी बौद्धिकता और कल्पना की बहुआयामी उड़ान के बावजूद आपेक्षिकता का सिद्धांत इतना गूढ़ है कि उसे बाल साहित्य में सीधे ढालना आसान नहीं है। मगर आइंस्टाइन के शोध से उपजी एक विचित्र-सी कल्पना ने बाल साहित्य की समृद्धि का मानो दरवाज़ा ही खोल दिया। आइंस्टाइन ने सिद्ध किया था कि समय भी यात्रा का आनंद लेता है। उसका वेग भी अच्छा-ख़ासा यानी प्रकाश के वेग के बराबर होता है। अभी तक यह माना जा रहा था कि गुज़रा हुआ वक़्त कभी वापस नहीं आता। आइंस्टाइन ने गणितीय आधार पर सिद्ध किया था कि समय को वापस भी दौड़ाया जा सकता है। विज्ञान साहित्य-लेखन के लिए गहरे विज्ञान-बोध की आवश्यकता होती है। उन्नत विज्ञानबोध के साथ विज्ञान का कामचलाऊ ज्ञान हो तो भी निभ सकता है। वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न लेखक अपने परिवेश से ही ऐसे अनेक विषय खोज सकता है जो विज्ञान के प्रति बालक की रुचि तथा प्रश्नाकुलता को बढ़ाने में सहायक हों। तदनुसार विज्ञान साहित्य ऐसा साहित्य है जिससे किसी वैज्ञानिक सिद्धांत की पुष्टि होती हो अथवा जो किसी वैज्ञानिक आविष्कार को लेकर तार्किक दृष्टिकोण से लिखा गया हो। वैज्ञानिक लेखन की कुछ विशेषताओं का उल्लेख अगर हम करें जो विज्ञान लेखन के लिए बहुत ज़रूरी हैं वो निम्नानुसार हैं: 

  1. वैज्ञानिक साहित्य की भाषा अधिक कठिन नहीं होनी चाहिए। 

  2. उसमें अनावश्यक विवरण नहीं होने चाहिए। 

  3. उसमें मूल सिद्धांतों की सही-सही और सटीक व्याख्या की जानी चाहिए। 

  4. उसमें भाषागत स्पष्टता और गरिमा का निर्वाह किया जाना चाहिए। 

  5. उसमें विषय को पर्याप्त उदाहरणों द्वारा पुष्ट किया जाना चाहिए। 

विज्ञान की भाषा:

विज्ञान में मौलिक लेखन कम हुआ है और संदर्भ ग्रंथ न के बराबर हैं। लोकप्रिय विज्ञान साहित्य सृजन में प्रगति अवश्य हुई है परन्तु सरल, सुबोध विज्ञान साहित्य जो जन साधारण की समझ में आ सके कम लिखा गया है। इंटरनेट पर आज हिन्दी में विज्ञान सामग्री अति सीमित है। विश्वविद्यालयों तथा राष्ट्रीय वैज्ञानिक संस्थानों में कार्यरत विषय विशेषज्ञ अपने आलेख शोधपत्र अथवा पुस्तकें अँग्रेज़ी में लिखते हैं। वह हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषा में विज्ञान लेखन में रुचि नहीं रखते। संभवत: भाषागत कठिनाई तथा वैज्ञानिक समाज की घोर उपेक्षा उन्हें आगे नहीं आने देती। 

मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली का कोश तैयार करने का बीड़ा उठाया हुआ है। वर्ष 1961 में संसद में पारित प्रस्ताव के मुताबिक़ सभी विषयों के लिए सभी भाषाओं में शब्दावली तैयार की जाएगी। वैज्ञानिक शब्दों में भिन्न अर्थों की गुंजाइश कम होती है। संस्कृत में व्याकरण और शब्द-निर्माण के नियमों में विरोधाभास नहीं के बराबर हैं। भाषा जानने वालों को संस्कृत शब्दों में ध्वन्यात्मक सौंदर्य भी दिखता है। पर आज भी संस्कृत उतनी लोकप्रिय भाषा नहीं बन पाई है। इस वजह से कोशिश हमेशा यह रहती है कि शब्दों के तत्सम रूप से अलग सरल तद्भव शब्द बनाए जाएँ। शब्दावली ऐसी होनी चाहिए जो विज्ञान सीखने में मदद करे और विषय को रुचिकर बनाए। बीसवीं सदी के प्रख्यात भौतिकीविद रिचर्ड फ़ाइनमैन ने अध्यापकों को दिए एक व्याख्यान में समझाया था कि शब्द महत्त्वपूर्ण हैं, उनको सीखना है, पर पहली ज़रूरत यह है कि विज्ञान क्या है, यह समझ में आए। ये दो बातें बिल्कुल अलग हैं और ख़ासतौर पर हमारे समाज में जहाँ व्यापक निरक्षरता और अल्प-शिक्षा की वजह से आधुनिक विज्ञान एक हौवे की तरह है। अधिकतर वैज्ञानिकों के लिए विज्ञान महज़ एक नौकरी है। चूँकि पेशे में तरक़्क़ी के लिए हर काम अँगरेज़ी में करना है, इसलिए सफल वैज्ञानिक अक़्सर अपनी भाषा में कमज़ोर होता है। 

हिंदी में विज्ञान लेखन की शताब्‍दी पूरी हो चुकी है। जो यह कहा जाता है कि हिंदी में विज्ञान की पुस्‍तकें नहीं हैं तो यह झूठ है। विज्ञान के लगभग सभी विषयों पर हिंदी में सैकड़ों पुस्‍तकें उपलब्‍ध हैं। धीरे-धीरे विज्ञान शब्दावली का भी विकास हुआ। भारत सरकार के शब्‍दावली आयोग ने पारिभाषिक शब्‍दावलियाँ छापी हैं। इनमें वैज्ञानिक शब्‍दों की कमी नहीं है। हालाँकि उनमें कई शब्‍द कारखाने में बने शब्‍द जैसे हैं। उन्हें आम भाषा के शब्‍दों से बदला जा सकता है। लोक में जो शब्‍द प्रचलित हैं, उन्‍हें अधिक लेना चाहिए ताकि हर व्‍यक्ति उन्हें समझ सके। 

वैज्ञानिक एवं तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली का हिन्दी में अब अभाव नहीं है परन्तु विज्ञान लेखक इसका समुचित उपयोग नहीं कर रहे हैं और तमाम लेखक स्वयं नित नए शब्द गढ़ रहे हैं। इस अराजक स्थिति के कारण वैज्ञानिक पुस्तकों की भाषा का मानकीकरण नहीं हो रहा है। हिन्दी में विज्ञान विषयक शोधपत्रों आलेखों को प्रस्तुत करने के लिए अँग्रेज़ी के समकक्ष विज्ञान मंचों की स्थापना की आवश्यकता है क्योंकि ऐसे राष्ट्रीय मंचों का अभाव है जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार सम्मेलन आयोजित कर सकें और विज्ञान के बहुपृष्ठी चित्रात्मक शोधपत्रों का संकलन प्रकाशित कर सकें। पाठ्य-पुस्‍तकों में जो विज्ञान पढ़ाया जा रहा है, उसके लिए जो सहायक पुस्तकें हैं यानी उस विषय को समझने लायक़ जो लोकप्रिय शैली में लिखी गईं किताबें हैं, उन्‍हें निश्चित रूप से विद्यार्थियों को दिया जाना चाहिए। पाठ्य पुस्‍तकों के साथ ही उस विषय में लिखी रचनाओं के बारे में उसी पुस्‍तक में सूची दी जानी चाहिए। मान लीजिए कोई अंतरिक्ष के बारे में किताब है या सौरमंडल के बारे में किताब है, उसके साथ-साथ उन लोकप्रिय शैली में लिखी गई पुस्‍तकों का भी उसमें ज़िक्र किया जाना चाहिए कि बच्‍चो ये पुस्‍तकें हैं, इन्‍हें संदर्भ के रूप में पढ़ सकते हो। विज्ञान की गूढ़ बातों को रुचिकर बनाने की कला में दक्षता के अलावा सतत अध्ययन लेखक के लिए बेहद ज़रूरी है और मंच का होना भी। विज्ञान पर लिखने वाले अनेक लोग हैं, किन्तु मंच न मिलने के कारण उनकी प्रतिभा सामने नहीं आ पाती

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विज्ञान कथाएँ लोगों को युग की जटिलता से आगाह करा सकती हैं, और उनकी प्रवृत्ति को मोड़ भी सकती हैं, विज्ञान कथाओं का सामाजिक उद्देश्य व्यापक एवं उत्तरदायित्व पूर्ण है, क्योंकि इनमें भविष्य का दर्शन किया जा सकता है। दरअसल विज्ञान-कथाएँ विज्ञान के पाठकों के साथ ही विज्ञान न जानने वालों को भी अपनी ओर आकिर्षत करती हैं, इसलिए विज्ञान साहित्य की इस दिशा में विज्ञान के प्रचार की अद्वितीय क्षमता निहित है। हिंदी में विज्ञान-कथा विधा को यद्यपि एक शताब्दी से भी अधिक समय हो चुका है लेकिन साहित्य के क्षेत्र में अब भी इसकी मुकम्मल पहचान बाक़ी है। अच्छे साहित्य, विज्ञान हो या गल्प, का उद्देश्य समाज की भलाई, सुख समृद्धि में ही निहित नहीं होता है। वैज्ञानिक सोच विकसित करने तथा अंधविश्वासों के उन्मूलन के लिए साहित्य में विज्ञान को बढ़ावा देने की ज़रूरत है। 

सन्दर्भ ग्रन्थ:

  1. “मीडिया व्यग्रता का नहीं, समग्रता का परिचायक हो”-ब्रजकिशोर कुठियाला, साहित्य अमृत, अगस्त 15, पृष्ठ 51

  2. “विज्ञान पत्रकारिता”-शिवगोपाल मित्र, साहित्य अमृत, अगस्त 15, पृष्ठ 76

  3. एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक बाल साहित्यकार सीमूर साइमन का कथन

  4. हिन्दी में वैज्ञानिक साहित्य सृजन की स्थिति-डॉ. नवीन प्रकाश सिंह ‘नवीन’

  5. ‘मेरी विज्ञान डायरी’-देवेंद्र मेवाड़ी

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