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हरितालिका तीज

(शिव-पार्वती मिलन की अमर कथा पर कविता) 

 

हरी-भरी डालियों पर झूलते हुए
सपनों की झंकार
गूँजती है सखियों की हँसी, 
गीतों का मधुर विस्तार
पर कहीं एक नारी बैठी है
निर्जल उपवास की मौन साधना में
उसकी आँखों में झलकता है तप का तेज
हृदय में गूँजता है शिव का नाम। 
 
यह केवल उत्सव नहीं, 
यह केवल शृंगार का पर्व नहीं, 
यह है आत्मा का अर्पण
पति के दीर्घ जीवन, दाम्पत्य की सुखमयता
और स्त्री के संकल्प का पर्व। 
 
हरितालिका तीज की कथा
पर्वतराज हिमालय की पुत्री
पार्वती से आरंभ होती है। 
वह नारी जिसने अपने बचपन से ही
महादेव को अपने पति रूप में देखा, 
जिसका हृदय केवल शंकर के नाम पर धड़कता था। 
परन्तु पिता ने चाहा
कि उनका विवाह विष्णु से हो
संसार का पालनहार, 
पर पार्वती का मन बँध चुका था
महाकाल, औघड़नाथ शिव से। 
 
सखियों ने सुना उसकी व्यथा, 
और उसे हरण कर वन में ले गईं
यहीं से जन्मा यह व्रत, यह संकल्प, 
यह तपस्या का आरंभ। 
वन में तप की ज्वाला प्रज्वलित हुई, 
शरीर सूख गया, पर आत्मा खड़ी रही अटल। 
निर्जल उपवास, अनन्य स्मरण, 
केवल एक नाम
शिव, शिव, शिव। 
 
और जब तप पूर्ण हुआ
महादेव प्रकट हुए, 
भस्मवेषधारी, गजचर्म लिपटे, 
गले में सर्पों की माला, 
जटाओं से बहती गंगा, 
त्रिनेत्र में अग्नि की ज्योति
परन्तु हृदय में अनंत करुणा। 
उन्होंने स्वीकारा उस अनन्य प्रेम को, 
उस तप के ताप को, 
और पार्वती बनीं अर्द्धांगिनी। 
यह व्रत बन गया स्मृति
स्त्रियों की अटूट आस्था की, 
प्रेम और समर्पण की। 
 
हरितालिका तीज आज भी
नारी के संकल्प का प्रतीक है। 
वह दिनभर नहीं लेती अन्न-जल
फिर भी उसके चेहरे पर झलकता है शृंगार
हरियाली का, मेहँदी का, लाल चूड़ियों का। 
सखियाँ गाती हैं मंगल गीत, 
झूलों की पेंगों पर उड़ती है आशा, 
और मन मंदिर में बसता है
पार्वती का वही तप, वही विश्वास। 
 
यह व्रत केवल पति की दीर्घायु के लिए नहीं, 
यह व्रत है आत्मा के धैर्य का, 
प्रेम की निष्ठा का, 
त्याग की पराकाष्ठा का। 
कितना कठिन है निर्जल रहना, 
फिर भी वह सहज मुस्कुराती है
क्योंकि उसके भीतर जल रहा है विश्वास
कि शिव की कृपा से
उसका संसार रहेगा अखंड। 
 
हरितालिका तीज
नाम में छुपा है रहस्य, 
“हरित”— हरण करना, 
“आलिका”— सखी, 
जब सखियों ने पार्वती को हरण कर
वन में तप हेतु पहुँचाया। 
वही प्रसंग आज भी जीवित है
हर नारी के संकल्प में। 
 
भारत के गाँव-नगरों में
यह पर्व आता है हरियाली संग, 
कहीं झूले, कहीं लोकगीत, 
कहीं भक्ति का सामूहिक उत्सव। 
राजस्थान की हवाओं में, 
उत्तर प्रदेश की गलियों में, 
मध्यप्रदेश की धरती पर, 
बिहार-झारखंड की नदियों के किनारे, 
हर जगह गूँजता है यह संकल्प। 
 
संध्या का समय
नारी करती है शिव-पार्वती की आराधना, 
फूलों की थाली, दीपक की लौ, 
धूप की महक और
मन का स्वच्छ प्रकाश। 
कथा सुनती है, 
कथा सुनाती है, 
और स्मरण करती है
कि प्रेम केवल शृंगार नहीं, 
प्रेम तप भी है, त्याग भी है। 
 
हे महादेव! 
आज भी हर नारी पुकारती है
पार्वती की तरह
मुझे दीजिए वही धैर्य, 
वही अटल विश्वास, 
वही समर्पण। 
और आप
हर बार की तरह
भस्मवेषधारी, औघड़, 
परन्तु करुणामूर्ति बन
उस पुकार को सुनते हैं। 
 
इसलिए हरितालिका तीज
केवल व्रत नहीं, 
यह स्त्री का उत्सव है, 
प्रेम का पर्व है, 
समर्पण का अमर प्रतीक है। 

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