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अमन चाँदपुरी के कुछ दोहे

प्रेम-विनय से जो मिले, वो समझें जागीर।
हक़ से कभी न माँगतें, कुछ भी संत फ़क़ीर॥

बचपन की वो मस्तियाँ, बचपन के वो मित्र।
सबकुछ धूमिल यूँ हुआ, ज्यों कोई चलचित्र॥

हर जल से मत कीजिए, गंगा जैसी आस।
खारे सागर से कहीं, बुझी किसी की प्यास॥

जब से परदेशी हुए, दिखे न फिर इक बार।
होली-ईद वहीं मनी, वहीं बसा घर द्वार॥

प्यास बुझानी है अगर, जा नदिया के पास।
ओस चाटने से भला, बुझती है क्या प्यास॥

निद्रा लें फुटपाथ पर, जो आवास विहीन।
चिर निद्रा देने उन्हें, आते कृपा-प्रवीण॥

लख माटी की मूर्तियाँ, कह बैठे जगदीश।
मूर्तिकार के हाथ ने, किसे बनाया ईश॥

रोज़ी-रोटी की फ़िकर, लायी देख विदेश।
तन में, मन में, नयन में, बसता अपना देश॥

अपने मुख से कीजिए, मत अपनी तारीफ़।
हमें पता है आप हैं, कितने बड़े शरीफ़॥

ऊँचे कुल से आदमी, होता नहीं महान।
मानव अपने कर्म से, पाता है सम्मान॥

रोज़ सुबह उठकर अमन,मत जा गंगा तीर।
ऐसे मन धुलता नहीं, कह कह मरे कबीर॥

अमना संगत साधु की, अनुभव देत महान।
बिन पोथी बिन ग्रंथ के, मिले ज्ञान की खान॥

मिलना मुश्किल है बहुत, जग में ऐसा वीर।
काम, क्रोध, मद छोड़कर, जो बन गया फ़कीर॥

दिल पर है चलता नहीं, कभी किसी का ज़ोर।
मैं ठहरा कमज़ोर तो, तू भी है कमज़ोर॥

अमन पराई नारियाँ, हैं माँ-बहन समान।
बुरी नज़र इन पर बड़ा, पाप रहे ये ध्यान॥

कौन यहाँ जीवित बचा, राजा रंक फ़कीर।
अमर यहाँ जो भी हुए, वो ही सच्चे वीर॥

जिनको निज अपराध का, कभी न हो आभास।
उनका होता जगत मे, पग-पग पर उपहास॥

गागर में सागर भरूँ, भरूँ सीप आकाश।
प्रभुवर ! ऐसा तू मुझे, दे मन में विश्वास॥

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