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अविनाश ब्यौहार – दोहे – 001

किस मिट्टी का है बना, देखो सकल समाज। 
जब चिड़ियों की है सभा, मुखिया बनते बाज़॥
 
तब केवल ईमान था, और उचित थे दाम। 
रिश्वत जैसी ज़िन्दगी, क्यों दे दी है राम॥
 
प्रजातंत्र के नाम पर, यहाँ मची है लूट। 
लोग अराजक हो गए, देश रहा है टूट॥
 
रिश्ते अब लगने लगे, जैसे कोई भार। 
क्या नदियों से नेह की, लगी सूखने धार॥
 
न्याय और अन्याय में, दिखा नहीं है फ़र्क़। 
सच को दोषी कह रहे, आज झूठ के तर्क॥

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