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कुण्डलिया – अविनाश ब्यौहार – 001

 

1.
माझी ऐसा चाहिए, नाव लगा दे पार। 
फिर चाहे वह कूल हो, चाहे हो मझधार॥
चाहे हो मझधार, समय भी एक न रहता। 
हो मानव की श्वास, मगर दरिया सा बहता॥
काश! अड़ोस-पड़ोस, अगर सुख-दुख का साझी। 
है अपना परिवार, बनी पत्नी है माझी॥
2. 
गर्मी का वह रूप भी, कितना था विकराल। 
धरती की अब बन गई, पावस ऋतु है ढाल॥
पावस ऋतु है ढाल, झमाझम बारिश होती। 
कहते हैं कुछ लोग, प्रकृति है झर-झर रोती॥
आसमान में मेघ, गई रवि की बेशर्मी। 
हुए लबालब ताल, बुझी है चिकती गर्मी॥

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