बना रही लोई
काव्य साहित्य | गीत-नवगीत अविनाश ब्यौहार15 Sep 2021 (अंक: 189, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
चलती बारिश में
बादल ने
बूँद पिरोई।
तरुणी है
मीठे-मीठे
सपनों में खोई॥
मेघ पाहुने केवल
पावस में रहते हैं।
सूखे की चपेट है
जेठ मास सहते हैं॥
और अमावस
में रातें-
ज़ार-ज़ार रोईं।
चूल्हे का अपनापन
जैसे खो जाता है।
और समय बिस्तर पर
काँटे बो जाता है॥
अम्मा रोटी
पोने को
बना रही लोई।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अंतिम गीत लिखे जाता हूँ
गीत-नवगीत | स्व. राकेश खण्डेलवालविदित नहीं लेखनी उँगलियों का कल साथ निभाये…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
गीत-नवगीत
- आसमान की चादर पे
- कबीर हुए
- कालिख अँधेरों की
- किस में बूता है
- कोलाहल की साँसें
- खैनी भी मलनी है
- गहराई भाँप रहे
- झमेला है
- टपक रहा घाम
- टेसू खिले वनों में
- तारे खिले-खिले
- तिनके का सहारा
- पंचम स्वर में
- पर्वत से नदिया
- फ़ुज़ूल की बातें
- बना रही लोई
- बाँचना हथेली है
- बातों में मशग़ूल
- भीगी-भीगी शाम
- भूल गई दुनिया अब तो
- भौचक सी दुनिया
- मनमत्त गयंद
- महानगर के चाल-चलन
- लँगोटी है
- वही दाघ है
- विलोम हुए
- शरद मुस्काए
- शापित परछाँई
- सूरज की क्या हस्ती है
- हमें पतूखी है
- हरियाली थिरक रही
- होंठ सिल गई
- क़िले वाला शहर
कविता-मुक्तक
गीतिका
ग़ज़ल
दोहे
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं