हमें पतूखी है
काव्य साहित्य | गीत-नवगीत अविनाश ब्यौहार1 Dec 2021 (अंक: 194, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
अगर है अथाह जलराशि
फिर भी नदिया सूखी है।
भाव नहीं हैं तो
कैसा इजहार करें।
सर्कस सा लगने वाला
संसार करें॥
ये व्यवस्था चीता जैसी
हुई भूखी-भूखी है।
बाग़ हैं–पेड़ हैं
बुझी-बुझी हरियाली।
चाँदनी दिख रही
अँधेरों से काली॥
उनकी रोटी घी चुपड़ी
मुझको रूखी-रूखी है।
राजपथ की सड़कों पर
अनमोल कारें।
झुग्गी और झोपड़ी
आरती उतारें॥
वे चाँदी की थाली में जीमें
हमें पतूखी है।
(पतूखी / पतोखी= पत्ते का दोना)
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अंतिम गीत लिखे जाता हूँ
गीत-नवगीत | स्व. राकेश खण्डेलवालविदित नहीं लेखनी उँगलियों का कल साथ निभाये…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
गीत-नवगीत
- आसमान की चादर पे
- कबीर हुए
- कालिख अँधेरों की
- किस में बूता है
- कोलाहल की साँसें
- खैनी भी मलनी है
- गहराई भाँप रहे
- झमेला है
- टपक रहा घाम
- टेसू खिले वनों में
- तारे खिले-खिले
- तिनके का सहारा
- पंचम स्वर में
- पर्वत से नदिया
- फ़ुज़ूल की बातें
- बना रही लोई
- बाँचना हथेली है
- बातों में मशग़ूल
- भीगी-भीगी शाम
- भूल गई दुनिया अब तो
- भौचक सी दुनिया
- मनमत्त गयंद
- महानगर के चाल-चलन
- लँगोटी है
- वही दाघ है
- विलोम हुए
- शरद मुस्काए
- शापित परछाँई
- सूरज की क्या हस्ती है
- हमें पतूखी है
- हरियाली थिरक रही
- होंठ सिल गई
- क़िले वाला शहर
कविता-मुक्तक
गीतिका
ग़ज़ल
दोहे
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं