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अंगारे गीले राख से

वो जो बिछे थे हर तरफ़ 
काँटे मिरी राहों में
मंज़िल ना मिलने का दर्द 
भरी था आहों में
हम सह ना सके 
उस दर्द को और चल पड़े 
लथपथ लहू से पैर लिए 
हम मंज़िल के क़रीब थे
पर तभी वक़्त ने उस बचे हुए 
रास्तों पर बिखेर दिए ढेर सारे 
जलते हुए अंगारे ही अंगारे
देखकर अंगारों को हम रो पड़े 
यूँ तो हम बहुत रोए 
फिर भी हौसला नहीं खोए 
मंज़िल आँखों के सामने थी
राह एकदम सीधी 
पर अंगारों से भरी थी 
मुश्किल बहुत था 
काँटों से ज़ख़्मी पैरों से 
अंगारों पर चलना
नामुमकिन था लेकिन
इरादों का बदलना 
बंद आँखों से हमने जब रखा 
पहला क़दम अंगारों पर
अश्क की बेहद ठंडी धार 
बह रही थी गालों पर 
अचानक बंद आँखों से ही हमने 
हर तरफ़ धुआँ सा महसूस किया 
जलते अंगारे बेहद ठंडे 
और गीले राख से लगे
चलना कुछ आसान था
मंज़िल टकरा गई हो 
जैसे ख़ुद ही हमसे आकर
अश्कों ने राख बना डाला
अंगारों को बुझाकर
दर्द, आह, अश्क
और हौसले ने मिलकर 
कठोर वक़्त को बदल डाला
मंज़िल सहला रही है अब 
मिरे ज़ख़्मी पैरों का छाला

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टिप्पणियाँ

Sarojini Pandey 2022/01/15 07:32 PM

काश हमेशा ऐसा हो पाता! नज़्म अच्छी है!!

shaily 2022/01/13 10:19 PM

बहुत खूब

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