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मचलना है तुझे ही

ऐ ज़िंदगी ये जो तूने मुझे काली
अँधेरी रात का तोहफ़ा
बरसों से दिया है ना 
इसे सुहानी सुबह में 
अब बदलना है मुझे ही। 
 
ऐ दिल ये जो मोम की मानिंद 
मुसलसल तू जलता, पिघलता
सिसकता रहता है ना
ख़ुद को एक कठोर पत्थर में 
बदलना है तुझे ही। 
 
ऐ मेरी तनहाई ये जो अक़्सर तू
मेरे साथ साथ ही रहती है ना
अब तुझे गले लगाकर 
मंज़िल की तरफ़ 
चलना है मुझे ही
 
ऐ मग़रूर खारे समंदर
ये जो नाज़ुक सी मेरी हसरतें
तपते हुए सहरा से, तेरे मौजों के किनारे 
दौड़ी चली आती थीं ना
और नहीं दौड़ सकतीं ये
अब इनसे मिलने के वास्ते मचलना है तुझे ही 
 
ऐ! बावरी ’बीना’ ये जो कुछ लोग 
तेरे मददगार होने का हर बार
झूठे दम भरते हैं ना 
उनसे अब कोई उम्मीद ना कर तू
और दिल में अपने ठान ले
ग़मों के भँवर से ख़ुद निकलना है तुझे ही

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