अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

एक टीन एज/किशोर के मन की पीड़ा

किशोरावस्था ही वह अवस्था है जब एक लड़के या लड़की को उसके माता-पिता एवं शिक्षकों से अधिक ध्यान, प्यार, सलाह और सहयोग मिलने की अत्यंत आवश्यकता होती है। पर अफ़सोस, आज के आधुनिक युग में भी जब हर तरह के ज्ञान को अत्यंत सरलता पूर्वक एक स्मार्ट फोन से भी प्राप्त किया जा सकता है, फिर भी बहुत से लोग किशोरों की समस्या से अनजान कैसे रह जाते हैं। आजभी स्वयं को शिक्षित कहने वाले बहुत से लोग एक किशोर लड़के की परेशानियों को समझने की कोशिश नहीं करते हैं।

अक़्सर देखा जाता है कि एक लड़की की समस्याओं से तो कुछ हद तक लोग परिचित होते हैं और समझने की कोशिश भी करते हैं। पर लड़के भी उम्र की इस नाज़ुक मोड़ पर कुछ ख़ास चिंता और पीड़ा से गुज़र रहे होते हैं, यह जानने और समझने की कोशिश शायद ही कोई करता है।

मेरा मानना है कि इस उम्र में लड़के, लड़कियाँ दोनों ही अपने आप में आये हुए परिवर्तनों से अनजान और परेशान रहते हैं; पर लड़की को समझाने या सुनने वाली माँ, बहन या भाभी मिल जाती हैं। पर लड़के अपने स्वभाव के परिवर्तन और घर के बड़े सदस्यों के द्वारा कुछ बड़ा करने की मिल रही निरर्थक सलाहों और अपने किशोरावस्था के अनुरूप जगे सपनों के बीच जूझ रहे होते हैं। उन्हें भी सुनने, समझने या प्यार से समझाने वाला कोई नहीं होता; क्योंकि लोगों की यही धारणा होती है कि वह तो लड़का है, भला उसे क्या तकलीफ़ हो सकती है—ईश्वर ने तुम्हें जन्म से ही मज़बूत बनाया है। एक माता-पिता और शिक्षक के तौर पर हमें यह समझना होगा कि लड़की की तरह लड़के का, कोमल शरीर और मासिक धर्म जैसी समस्याओं से सामना भले ना हो, पर  हृदय उनके पास भी है। हमारे अधूरे सपनों को पूरा करने हेतु चिंता और पीड़ा तो उन्हें भी होती है बल्कि उन्हें ही अधिक रहती है क्योंकि उनके ऊपर कुल के चिराग होने और कुल का नाम रौशन करने की ज़िम्मेदारी दे दी जाती है; बिना उनके ख़्वाबों-ख़्वाहिशों को जाने-समझे।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

नज़्म

सामाजिक आलेख

कविता

कहानी

चिन्तन

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं