अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मौत भी डर गई थी

हर उजड़ी हवेली, हर बंजर ज़मीन 
मुझे उन दिनों की याद दिलाती है
उन दिनों की जब मैं तुझसे उन दिनों 
यकबयक से बिछड़ी थी। 
 
उजड़ी हवेलियों के जर्जर खंभे 
मुझे याद दिलाते हैं किस तरह 
हर आहट पर मैं तेरे अक्स को 
टटोल कर तुझे अपनी भूखी 
बाज़ुओं में समेट कर तुझसे लिपट कर 
एक बार जी भर कर रो लेने की नाकाम 
कोशिश कर अपनी रूह को थकाकर
बदहाल कर दिया था। 
 
किसी भी बंजर ज़मीन में पड़ी दरारें 
याद दिलाती हैं मुझे कि किस तरह 
तेरे इस संसार में जीते जी मैंने तेरे 
मुझमें ना होने की मातम में ख़ुद को 
सबसे जुदा कर लिया था। 
 
बिल्कुल रुखी और ख़ूँख़ार, 
यूँ हो गई थी मैं कि मौत भी मेरी 
लाल आँखों की बात सुनकर 
डर गई थी जब मैंने उसे देखा था 
लाल आँखों से ख़ामोशी भरे अंदाज़ में 
ये पूछते हुए तरेरकर कि 
ठहर नहीं सकती थोड़ी देर? 
 
मैंने कहा था तब मौत से 
बड़ी उम्मीद से आ रहा होगा वह। 
होगी उसके भी सामने कोई अड़चन, 
मुझे इस जहाँ से ले जाने से पहले 
तू मुझे उसका दीदार तो कर लेने दे। 
और डर कर मौत भी 
मुझ सूखे दरख़्त को छोड़कर 
मेरी हिज्र की ज़मीं पर चली गई सदा के लिए। 
  
फिर ना तू आया 
ना ही मौत आई मुझ तक लौट कर। 
ख़ैर, अब मैं हरी हूँ सदा के तेरे दिये ज़ख्मों से 
और अब दिल ने उस सब्र को ही 
अपना हमसुखन चुन लिया है 
जिसके नूर से रूह 
निखरती जा रही है दिन ब दिन
लेकिन तुझे भूलना आज भी मेरे वश में नहीं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

1984 का पंजाब
|

शाम ढले अक्सर ज़ुल्म के साये को छत से उतरते…

 हम उठे तो जग उठा
|

हम उठे तो जग उठा, सो गए तो रात है, लगता…

अंगारे गीले राख से
|

वो जो बिछे थे हर तरफ़  काँटे मिरी राहों…

अच्छा लगा
|

तेरा ज़िंदगी में आना, अच्छा लगा  हँसना,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

नज़्म

सामाजिक आलेख

कविता

कहानी

चिन्तन

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं