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ईर्ष्या से परे

नये स्कूल में आज स्नेहा कुलकर्णी का पहला दिन था। स्कूल की डिसिप्लन इंचार्ज ने सारे अध्यापक, अध्यापिकाओं से उनका परिचय करवाया तो सब आपस में खुसर-फुसर करने लगे कि एक और पीजीटी अँग्रेज़ी? जब कि यहाँ तो पहले से ही इस पद पर रेनुका मैम हैं। रेनुका मैम अच्छी अध्यापिका के साथ विद्यालय के कार्यक्रमों के सुंदर संचालन के लिए भी जानी जाती थीं; उनकी जगह वहाँ कोई नहीं ले सकता था। 

संयोग से स्नेहा मैम भी अपने विषय में पारंगत व मृदुभाषी थीं। उन्हें भी सबसे आदर-सम्मान मिलता देख रेनुका की ईर्ष्या बढ़ने लगी। ईर्ष्या के वशीभूत वह चाहती कि कौन सी ऐसी चाल चलूँ कि स्नेहा नाम की बला यहाँ से चली जाए। अब वह अपने काम पर कम पर स्नेहा जी के ख़िलाफ़ चाल पर ज़्यादा ध्यान देतीं। स्नेहा जी तक भी ये बातें पहुँचती पर सब जानकर भी अत्यंत शान्ति और गंभीरता से अपने काम पर ध्यान देतीं। उन्हें रेनुका से कभी नफ़रत नहीं हुई क्योंकि जीवन के प्रति उनका नज़रिया ही निराला था। ईर्ष्या से परे जीवन जीतीं और दूसरों को भी यही सीखातीं। 

कुछ ही दिनों में उन्होंने सबके दिलों में अपनी जगह बना ली पर रेनुका मैम के व्यक्तित्व में ईर्ष्या के कारण बहुत गिरावट आ गई। अब वह पहले की तरह किसी भी मसले को साहसपूर्ण ढंग से हल करने में असफल रहने लगीं और विद्यालय प्रबंधक से डाँट भी खाने लगीं तथा तनख़्वाह में कोई बढ़ोतरी भी नहीं हुई। ईर्ष्या रूपी आग किसी और को बाद में पर जिसमें जलती है उसे पहले जला डालती है। इसलिए हमें स्वयं के विकास हेतु स्वयं को ईर्ष्या से परे रखना चाहिए।

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