अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

1984 का पंजाब

शाम ढले अक्सर ज़ुल्म के
साये को छत से उतरते देखा
सारी सारी रात उसे फिर
बेख़ौफ़ आँगन में टहलते देखा

दहशत का माहौल फिर
इस क़दर रहा उस घर पे भारी
कि घर के हर शख़्स को
ज़िन्दा ही क़ब्र में उतरते देखा

गुम हो गया वो साया फिर
दूर कहीं सुबह से पहले
दिन के उजाले में भी न
हमने किसी को हँसते देखा

अमनो सुकून जल गया,
ज़िन्दगी क़फ़न की मुहताज़ बनी
क्या क्या न जाने छूट गया,
किस किस को न मरते देखा

न रही सलामत कोई जान,
न ही महफ़ूज़ किसी की आबरू
ख़ौफ़ के साये तले ज़िन्दगी को
क़तरा क़तरा पिघलते देखा

यतीम हुए, घर बार छूटा,
हिजरत हुई जाने ही कितनों की
अनगिनत बेक़सूर जानों को
मुसलसल ज़िन्दान में सड़ते देखा

वो जो समझते थे कि उनका
सूरज कभी ढलने वाला नहीं
आई शाम तो उनके इरादों को
भी पत्तों सा बिखरते देखा

ये कोई कहानी नहीं, हक़ीक़त
 थी हर रोज़ की मेरे दोस्त
कि हमने तेरे पंजाब को ‘निर्मल’
सालों-साल है जलते देखा

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

 हम उठे तो जग उठा
|

हम उठे तो जग उठा, सो गए तो रात है, लगता…

अंगारे गीले राख से
|

वो जो बिछे थे हर तरफ़  काँटे मिरी राहों…

अच्छा लगा
|

तेरा ज़िंदगी में आना, अच्छा लगा  हँसना,…

अच्छा है तुम चाँद सितारों में नहीं
|

अच्छा है तुम चाँद सितारों में नहीं, अच्छा…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित कविता

कविता

कविता - हाइकु

नज़्म

ग़ज़ल

गीत-नवगीत

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. आगाज़