आईने के रूबरू
शायरी | नज़्म निर्मल सिद्धू4 Feb 2019
आईने के रूबरू
जब मेरे यार होता हूँ
ख़ुद से फिर बड़ा
मैं शर्मसार होता हूँ
वक़्त की इबारत मुझसे
पढ़ी नहीं जाती है
जितना भी जी चाहे मैं
तलबगार होता हूँ
जो दिखता है वो मुझसे
मेल नहीं खाता है
जो मेल खाता है उससे
मैं नागवार होता हूँ
चंद लकीरें माज़ी की
कुछ रंग हैं क़िस्मत के
देख देख सबको
फिर मैं बेक़रार होता हूँ
रह गया है टूट के
ज़िन्दगी का आईना
जिसके टुकड़ों से सदा
मैं दाग़दार होता हूँ
मुझसे अलग नहीं है
ये ’निर्मल’ की ज़िन्दगी
फिर न जाने क्यों मैं
गुनाहगार होता हूँ
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