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कब करोगे? 

मूल पंजाबी कविता: कद करोगे; लेखिका: सुरजीत
अनुवाद कर्ता: निर्मल सिद्धू

तुम्हारी बस्ती के शब्दों में
कितना शोर है मेरे लिये! 
इस पे चुप कब धरोगे? 
मौन हो चुके हैं मेरे शब्द
मेरे मौन का विस्तार 
कब करोगे? 
 
कोई तीव्र प्यास है मेरे हलक़ में
अंजुरी भर सागर इस पर
कब धरोगे
हाय, इक मुट्ठी स्वाती बूँद की
कब इसके हवाले करोगे, 
ठोस हो चुके अलंकारों को
मेरे लिये तरल कब करोगे? 
 
क्यूँ मेरी उड़ान में इतनी बेबसी! 
क्यूँ एक भी छलाँग 
मुझसे भरी न गई? 
उक़ाब जैसी एक उड़ान के
कर्ता होने का कर्म कब करोगे? 
मेरी परवाज़ में तारों जड़ा आसमान
कब भरोगे? 
और
मेरे विराम को आराम कब दोगे? 
 
पैरिस  की गलियाँ
मुझे पागल कहती हैं
ऐरिज़ोना की ग्रैण्ड कैनियन
मेरे अंदर रहती हैं, 
और, चायना की दीवार पे
चढ़ बैठी हैं मेरे हिस्से की किरनें
ये घने जंगलों के रास्ते
बेकार पड़ी दीवारें
मेरी राह में कब तक
रुकावट बनी रहेंगी, 
इनको मेरे सफ़र से
अलग कब करोगे
और मुझे
विण्ड चाईम की मधुर
झंकार से भरा घर
प्रदान कब करोगे
कब करोगे? 

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