मगर, ऐसा हुआ
अनूदित साहित्य | अनूदित कविता निर्मल सिद्धू15 Feb 2022 (अंक: 199, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
मूल पंजाबी कविता: पर इंज होइआ; लेखिका: सुरजीत
अनुवाद कर्ता: निर्मल सिद्धू
आज कहानी है मैंने
इक सुनानी
दर्दमन्द लोगों की
बात है दुहरानी!
आपको देनी है गवाही
करना है अफ़सोस का भी इज़हार,
कहानी है उनकी
जो थे कभी ख़ुश रहते
जिनके घरों पे झूलती थीं
उनके नामों की तख़्तियाँ,
ख़ुशहाल आँगन में जिनके
तारे थे टिमटिमाते
मोर थे नाचते
पक्षी थे चहचहाते,
हँसते-बसते घरों में सदा
ठहाके थे गूँजते
सरों पे जिनके
किरनों के ताज चमकते
चाँदनी में मल-मल के नहाते
नर्म धूप में बैठ सुस्ताते
फ़सलें थीं लहलहाती
गलों में बस्ते लटकाये
बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी घर वापस आते,
गृहणियाँ, घरों को सँवारकर
दरवाज़ों पर उम्मीदों की
लड़ियाँ सजातीं,
अपनों की प्रतीक्षा करतीं
दर पे खड़ी हो मधुर गीत गातीं,
आरामदायक घरों में लोग
बेफ़िक्र हो सोते
वैसे भी, अपने घर डर काहे का,
कभी-कभी तो कुंडी भी न लगाते,
फिर एक दिन
एक भयानक आँधी
इस नगर पर ऐसी चढ़ी
जो इसकी गलियों को रौंदती हुई
सब घरों के अंदर जा घुसी
और सबों के सीने
बम, बन्दूक व संगीनों से छलनी कर
दहशत बन हुई खड़ी,
ऐसा होना नहीं चाहिये था
मगर, ऐसा हुआ
मासूम चीख़ों ने
सातवां आसमान छूआ
धरती रोई, अंबर रोया
आदम का चेहरा दाग़-दाग़ हुआ,
पर,
बोलने का साहस किसी में न हुआ,
हँसते-खेलते घर आते बच्चे
संगीनों की नोक पर चढ़ा-चढ़ा कर
मारे गये,
अपने घरों को खुले छोड़
लोग जान बचाते
जिधर मुँह उधर भागे,
ऐसा होना नहीं चाहिये था
मगर, ऐसा हुआ
दर-दर की ठोकरें खाता
नगर-नगर का हर व्यक्ति बेघर हुआ,
वतन छोड़ जान बचाने ख़ातिर
लोगों का सैलाब
सरहद पार भागने को आतुर हुआ,
लोगों से भरी कश्तियाँ
समुंदर में धकेलीं गईं
पर हाय री बदक़िस्मती!
बेरहम समुद्री तूफ़ान
अनगिनत जानें
आराम से निग़ल गया,
ऐसा होना नहीं चाहिये था
मगर, ऐसा हुआ
हँसता-बसता मानव
बीमार व लाचार होकर
दहाड़ मार कर रोया,
किनारे पर पड़ी लावारिस लाशों में
तीन साल के “ ऐलेन कुरडी “ की
लाश देख, पत्थर भी
भावुक होये बिना न रह सके,
ऐसा होना नहीं चाहिये था
मगर, ऐसा हुआ
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