बीमा पॉलिसी बनाम हथकंडे
कथा साहित्य | लघुकथा निर्मल सिद्धू21 Feb 2019
“मुझे क्या पता था कि ऐसा हो जायेगा,” मनजीत अपने पति की ओर देखते हुये धीरे से बोली।
“तो मुझे भी कौन सा पता था? मैंने तो हम सबके बारे में सोचकर ही ये फ़ैसला लिया था। क्या पता था कि सारी स्कीम ही उलट-पुलट हो जायेगी,” नवजोत ने पत्नी से कहा।
“हे भगवान! क्या उम्मीद थी, और क्या हो गया! इतना जो अधिक प्रीमियम भरा है, वो तो सारा गया ही... आगे भी पता नहीं कब तक और भरना पड़ेगा? ऊपर से इसकी ज़िम्मेदारी और गले पड़ गई,” मनजीत माँ के कमरे की तरफ़ देखते हुये बोली।
“जाने कब अमीर बन पायेंगे? मैंने तुमसे कहा भी था कि दोनों के ही नाम की पॉलिसी ले लेते हैं। लेकिन तुम मानी ही नहीं,” नवजोत की आवाज़ में ग़ुस्सा और पछतावा दोनों था।
“तुम्हें पता भी है कि दो बुजुर्गों का कितना अधिक प्रीमियम देना पड़ता है? और मैंने भी तो सबके भले के लिये ही बोला था, फिर उस बीमा एजेंट ने भी तो यही सुझाया था कि प्रीमियम शायद ज़्यादा देर नहीं देना पड़े। पॉलिसी होल्डर के मरते ही बेनीफिशीयरी होने के नाते बीमे की सारी रक़म हमें मिल जायेगी,” मनजीत घबराते होते हुये कहे जा रही थी।“यही सोचकर तो मैने केवल माँ के ही नाम की पॉलिसी ली थी कि माँ ही ज़्यादा ढीली-ढाली रहती है, पिता जी तो अभी ठीक-ठाक हैं और उनकी पेन्शन भी आ जाती है। लगता तो यही था कि माँ ही पहले जायेगी। परन्तु क्या पता था कि पिता जी ही पहले....।”
उधर दरवाज़े के पीछे खड़ी बचन कौर की उदास नज़रें सामने टँगे मृत पति के चित्र पर अटकी हुई थीं।
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