आब-ए-हैवाँ दे दे....
शायरी | नज़्म निर्मल सिद्धू20 Feb 2019
मेरी ख़ामोशी को
अब ज़ुबाँ दे दे
आवारगी को
मेरी तू मक़ाँ दे दे
भटक रही हैं
आरज़ुयें दर-बदर
अपने कूचे में
इनको अमाँ दे दे
तेरे सिवा कोई और
न हो साथ मेरे
शबे विसाल दे
चाहे शबे हिज्राँ दे दे
ग़र्द-ओ-ग़ुबार में
अवस न हो मेरे आँसू
छुपा दे दर्द आँखों
में ऐसी मिजगाँ दे दे
जीना मरना मेरा
तेरे लिये हो केवल
तेरे लिये ही तड़पूँ
दिल बेकराँ दे दे
आज़ाद हवाओं पे
लिख सकूँ दास्ताँ कोई
मुक़म्मल मुझको
ज़मी ओ आस्माँ दे दे
होंठ न काँपे मेरे
सरे दार भी कभी
तौफ़ीक़ दे इतनी
कूवते बयाँ दे दे
बढ़ चुकी तश्नगी
मेरी बेपनाह अब
सूखे दरख़्त को मेरे
आबे हैवां दे दे
सह सकें ज़माने की
मुख़ालफ़त ‘निर्मल’
या रब उसको पर्वत
सा जिस्मों जाँ दे दे
मेरी ख़ामोशी को
अब ज़ुबाँ दे दे
आवारगी को
मेरी तू मक़ाँ दे दे
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