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काव्य साहित्य | कविता निर्मल सिद्धू16 Aug 2007
मन
भटका हुआ है
एक मुद्दत से
उन राहों पर
जो कदाचित,
गंतव्य की ओर
नहीं ले जाती।
उलझा हुआ है कब से
उन अतृप्त कामनाओं
के जालों में
जो कभी
पूर्ण होकर भी
पूर्णता की ओर
नहीं ले जाती।
आवश्यकता है, अब मुझे
उस अनुकंपा की
जो मेरे
पैरों की गति तीव्र कर सके
हृदय की माँसपेशियों में एक
नव प्राण भर सके
अय बहारो
मेरे आँगन में उतरो
नूर की, ओ किरण
मेरा अन्तर्मन भी आलोकित कर दो
अमृत कलश की एक बूँद
मेरे हलक में भी डालो
ताकि पैदा हो सके
नेत्रों में ऐसी शक्ति
कि तुम्हें देख सकूँ
श्रवणों में ऐसी ताकत
कि तुझे सनु सकूँ
जिह्वा में ऐसी निपुणता
कि तेरे गीत गा सकूँ
फिर ले चले मुझे तू वहाँ
प्रेम ही प्रेम है जहाँ
ज्ञान ही ज्ञान है जहाँ
आनन्द ही आनन्द है जहाँ
फिर ले चले मुझे
तू वहाँ...
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