धरती बिछौना है
अनूदित साहित्य | अनूदित कविता निर्मल सिद्धू4 Feb 2019
(पंजाबी ग़ज़ल)
मूल लेखक : जोगिंदर "अणखिला"
अनुवाद : निर्मल सिद्धू
धरती बिछौना है, सड़क का पेड़ शामियाना है
शहर का फुटपाथ ही ग़रीबों का आशियाना है
हैरां तो वो है अपने हालात से, पर क्या करे,
हर एक चढ़ते दिन, उसने जीवन आज़माना है
आँखों में समेट के वो किसी उम्मीद का सूरज,
अपने जीवन संग उसने अहदे-वफ़ा निभाना है
धमाकों का शोर औ’ निहायत कशीदगी का दौर
सबका निशाना बस इसी ग़रीब का ठिकाना है
कपट, फ़रेब, झूठ, दग़ाबाज़ी, धोखा-धड़ी आजकल
सारी सफ़ेदपोश सियासत का बस यही निशाना है
अपने बुज़ुर्गों का कोई इन्तियाज़, एहतराम नहीं,
जिनके नाम पर चलता जग में हर घराना है
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