ओ ख़ुदा
काव्य साहित्य | कविता निर्मल सिद्धू5 Feb 2012
राह मुझे दिखलाता चल
ऊँच नीच समझाता चल
जीवन की पगडण्डी पर
प्रकाश किरन बिखराता चल
राह मुझे दिखलाता चल...
भूली भटकी यह काया है
समझ इसे न अब तक आया है
क्यों है जीवन, क्या है जीवन
भीतर कौन समाया है
और न यूँ तरसाता चल
गुत्थी यह सुलझाता चल
राह मुझे दिखलाता चल...
दुनिया है क्यों ग़म का मेला
सुख है चन्द पलों का खेला
हम आते तो हैं धूम मचाते
जाते ज्यों पानी का रेला
इतना तू बतलाता चल
फिर जो चाहे करवाता चल
राह मुझे दिखलाता चल...
सुन्दर उजली वो बूँद कहाँ है
नभ से उतरी वो परी कहाँ है
कोलाहल से भरे जगत में
वो रूहानी आवाज़ कहाँ है
तू रुह मेरी सहलाता चल
प्रेम सुधा बरसाता चल
राह मुझे दिखलाता चल....
मुझको दे दे ध्यान अपना तू
मुझको दे दे ज्ञान अपना तू
बेचैनी को राहत दे जो
भेज वहाँ से दूत अपना तू
भले खिलौनों से बहलाता चल
पर मुझको न ठुकराता चल
राह मुझे दिखलाता चल
ऊँच नीच समझाता चल...
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