हिदायत
काव्य साहित्य | कविता निर्मल सिद्धू1 Sep 2019
सब जानता हूँ मैं
और सब कुछ मानता भी हूँ
परन्तु
मेरी भी कुछ मजबूरियाँ हैं
मेरे भी कुछ दायित्व हैं
जिन्हें मैं नकार नहीं सकता,
इसलिये तुम
अपने अहम के कठोर दायरे में
या
अपने व्यक्तित्व के सुनहरे महल में
हो सके तो
कोई एक राह खुली रख लेना,
अथवा,
कोई एक खिड़की खुली छोड़ देना
जहाँ से मैं, हवा में तैर कर
तुम्हारे भीतर आ सकूँ,
तुम्हे याद आ सकूँ
तुम्हारे क़रीब रह सकूँ
तुमसे बतिया सकूँ,
तुम्हारी हृदय बाँसुरी पर
कोई नई धुन बना सकूँ,
तुम्हारे ख़ामोश लबों पर
कोई नवगीत ही गा सकूँ,
बस, तुम एक राह खुली रख लेना
कोई एक खिड़की खुली छोड़ देना,
मेरा क्या है,
मैं तो आ ही जाऊँगा, मैं तो आ ही जाऊँगा
मैं तो आ ही जाऊँगा.....
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