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कर्म का चक्रव्यूह

 

कई बार हम ज़िन्दगी में इतना कुछ हार जाते हैं, कि ख़ुद पर ही शक होने लगता, कि कहीं हम में तो कुछ बुराई नहीं? आख़िर ईश्वर हम से चाहता क्या है? माना रास्ते में कंकड़ हैं, तो पैरों में छाले पड़ना स्वाभाविक हैं, मगर इतनी रुसवाई आख़िर क्यों? कि कोई फूँक देने के बजाय, गर्म पानी फेंक कर चला जाता है। 

आख़िर सब कुछ न्योछावर कर देने वाले शख़्स के हाथ, अंततः निराशा क्यों आती हैं? दिन भर से थक-हार कर घर आए व्यक्ति को, कड़वे बोल क्यों मिलते हैं? 

प्रेम के सागर से भरपूर व्यक्ति, आख़िर क्यों प्रेम के लिए तड़पता हैं। तवज्जोह, सम्मान, मान और अधिकार देने वाले व्यक्ति से, हर कोई उसका ग़ुरूर क्यों छीन लेता है? ख़ुद को काट-काट कर रिश्ते की डोरी सजाने वाले व्यक्ति को, आख़िरकार इतना क्यों तोड़ दिया जाता है; कि उसका रिश्तों से मोह ही ख़त्म हो जाता। 

जब ऐसे बेहिसाब सवाल मन में तूफ़ान से उठते हैं, और हृदय की पीड़ा आँधी बन आँखों से बहने लग जाती, तब मन से केवल एक ही आवाज़ आती है: 

“तेरी क़िस्मत का लिखिया, 
आख़िर कहाँ जाएगा? 
तू सब्र रख ये बंदे, 
तेरा भी वक़्त आएगा। 
 
तू निभा अभी क़िरदार बख़ूबी, 
आज रण का तू अर्जुन है। 
तेरी डोर थामने एक दिन, 
ख़ुद गीता रचियता आएगा। 
 
विश्वास रख कर्म पर अपने, 
सच कब तक दब पाएगा। 
एक दिन चमकेगा तू दिनकर बन, 
और हर अंधियार मिट जाएगा। 
 
कर्म का चक्रव्यूह हैं ये संसार, 
हर किसी का कर्म लौट कर आएगा। 
आज बहता जा तू कंकड़ से लड़कर, 
तभी तू एक सफ़ेद झरना बन पाएगा।” 

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