अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कर्म का चक्रव्यूह

 

कई बार हम ज़िन्दगी में इतना कुछ हार जाते हैं, कि ख़ुद पर ही शक होने लगता, कि कहीं हम में तो कुछ बुराई नहीं? आख़िर ईश्वर हम से चाहता क्या है? माना रास्ते में कंकड़ हैं, तो पैरों में छाले पड़ना स्वाभाविक हैं, मगर इतनी रुसवाई आख़िर क्यों? कि कोई फूँक देने के बजाय, गर्म पानी फेंक कर चला जाता है। 

आख़िर सब कुछ न्योछावर कर देने वाले शख़्स के हाथ, अंततः निराशा क्यों आती हैं? दिन भर से थक-हार कर घर आए व्यक्ति को, कड़वे बोल क्यों मिलते हैं? 

प्रेम के सागर से भरपूर व्यक्ति, आख़िर क्यों प्रेम के लिए तड़पता हैं। तवज्जोह, सम्मान, मान और अधिकार देने वाले व्यक्ति से, हर कोई उसका ग़ुरूर क्यों छीन लेता है? ख़ुद को काट-काट कर रिश्ते की डोरी सजाने वाले व्यक्ति को, आख़िरकार इतना क्यों तोड़ दिया जाता है; कि उसका रिश्तों से मोह ही ख़त्म हो जाता। 

जब ऐसे बेहिसाब सवाल मन में तूफ़ान से उठते हैं, और हृदय की पीड़ा आँधी बन आँखों से बहने लग जाती, तब मन से केवल एक ही आवाज़ आती है: 

“तेरी क़िस्मत का लिखिया, 
आख़िर कहाँ जाएगा? 
तू सब्र रख ये बंदे, 
तेरा भी वक़्त आएगा। 
 
तू निभा अभी क़िरदार बख़ूबी, 
आज रण का तू अर्जुन है। 
तेरी डोर थामने एक दिन, 
ख़ुद गीता रचियता आएगा। 
 
विश्वास रख कर्म पर अपने, 
सच कब तक दब पाएगा। 
एक दिन चमकेगा तू दिनकर बन, 
और हर अंधियार मिट जाएगा। 
 
कर्म का चक्रव्यूह हैं ये संसार, 
हर किसी का कर्म लौट कर आएगा। 
आज बहता जा तू कंकड़ से लड़कर, 
तभी तू एक सफ़ेद झरना बन पाएगा।” 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

25 वर्ष के अंतराल में एक और परिवर्तन
|

दोस्तो, जो बात मैं यहाँ कहने का प्रयास करने…

अच्छाई
|

  आम तौर पर हम किसी व्यक्ति में, वस्तु…

अनकहे शब्द
|

  अच्छे से अच्छे की कल्पना हर कोई करता…

अपना अपना स्वर्ग
|

क्या आपका भी स्वर्ग औरों के स्वर्ग से बिल्कुल…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

स्मृति लेख

चिन्तन

कहानी

ललित निबन्ध

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं