आधुनिकता से ह्रास होती मानवता
आलेख | चिन्तन ममता मालवीय 'अनामिका'1 Oct 2022 (अंक: 214, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
“पक्के मकानों की चकाचौंध में
मज़बूत रिश्ते अब कच्चे हो गए।
जहाँ बाँट कर खाए जाते थे;
दही और पकवान,
वही अब घर के चार हिस्से हो गए।”
इस आधुनिकता की दौड़ में सहज ही इन्सान ने बहुत कुछ हासिल किया हैं, मगर उससे कहीं अधिक उनसे जाने-अनजाने में खो भी दिया। आज हर कोई बड़े बँगले, मर्सिडीज़ कार और ‘हाई लिविंग स्टैंडर्ड’ के पीछे भाग रहा हैं और इसे हासिल करने के लिए दिन रात एक कर मेहनत करने में भी लगा हुआ है, मगर इतनी ही मेहनत आज कोई भी परिवार और रिश्तों के पीछे नहीं करता।
आपने अक़्सर अपने घर के बड़े-बुजुर्गो को ये कहते सुना होगा, की “हमारे ज़माने में घर भले ही कच्चे थे, लेकिन लोगों के दिल बहुत बड़े और पक्के हुआ करते थे।” वो इसलिए ऐसा कहते थे; क्योंकि उस समय लोग इंटरनेट की जगह भाईचारा और इंसानियत से जुड़े थे।
मैं ख़ुद गाँव में पली और बड़ी हुई हूँ, मैंने स्वयं मिट्टी के घर और घर के किनारे बनी कच्ची सड़कों को पक्की बनते देखा है। घर-घर से चंदा इकट्ठा कर मोहल्ले के बीच होली, दिवाली, नवरात्रि और दशहरा मनाते हुए अपने गाँव को एक साथ देखा हैं, स्कूलों में बिना किसी सुविधा के ज़मीन पर बैठ कर पढ़ाई करने वाले विद्यार्थीयों को गुरु के चरणस्पर्श करते देखा है। कैसे बचपन में हमारी दादी हमें आँगन में बिठा कर कहानी सुनाया करती थी, पड़ोस में कोई बीमार हो जाए; तो रोज़ उससे हाल-चाल पूछने जाती थी। मोहल्ले के नुक्कड़ पर खड़े किसी व्यक्ति से अगर किसी के घर का पता पूछा जाता; तो वह उसे घर तक छोड़ने चला जाता था। पापा को हमेशा मैंने ऑफ़िस से घर आने के बाद हमारे साथ वक़्त बिताते देखा।
मगर आज हर कोई स्वतंत्र और उपभोक्तावादी जीवन जीने के लिए पारिवारिक मूल्यों से दूर रहना चाहता हैं, पिता के संघर्ष की कहानी छोड़ आज का युवा इंटरनेट पर ‘मोटिवेशन वीडियो’ ढूँढ़ता है। अपने निजी जीवन में आज का व्यक्ति इतना डूबा हुआ हैं कि; पास में दर्द से कहराते व्यक्ति की आह भी उसे सुनाई नहीं देती। बड़े और मॉडर्न स्कूल में पढ़ने के बाद भी आज के विद्यार्थी में संस्कार की कमी है।
आज निसंदेह आधुनिकता ने हमारे जीवन को सुविधामय बना दिया है, गूगल मैप से दुनियाँ के किसी भी कोने में जाया जा सकता है। एक सेकंड में संदेश भेज कर किसी से भी बात की जा सकती है। हज़ारों किलोमीटर की दूरी को एक वीडियो कॉल से कम किया जा सकता है। मगर “दिलों में आई दूरियाँ, व्यवहार में आई भाई-चारे की गिरावट और ह्रास होती मानवता को इस आधुनिकता की होड़ में बचाया नहीं जा सकता, क्योंकि यह आधुनिकता इन्हीं मूल्यों की मृत्यु शैय्या पर खड़ी अट्टालिका है।”
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
25 वर्ष के अंतराल में एक और परिवर्तन
चिन्तन | मधु शर्मादोस्तो, जो बात मैं यहाँ कहने का प्रयास करने…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- आँचल
- आत्मविश्वास के झोले
- एक नई सोच
- एक ज़माना था
- कर्तव्य पथ
- गुमराह तो वो है
- चेहरा मेरा जला दिया
- जिस दिशा में नफ़रत थी
- जीवन पाठ
- डर का साया
- मंज़िल एक भ्रम है
- मंज़िल चाहें कुछ भी हो
- मदद का भाव
- माहवारी
- मुश्किल की घड़ी
- मेरे पिया
- मैं ढूँढ़ रही हूँ
- मैं महकती हुई मिट्टी हूँ
- मैंने देखा है
- विजय
- वक़्त की पराकाष्ठा
- संघर्ष अभी जारी है
- संघर्ष और कामयाबी
- समस्या से घबरा नहीं
- सयानी
- क़िस्मत (ममता मालवीय)
- ज़िंदगी
स्मृति लेख
चिन्तन
कहानी
ललित निबन्ध
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं