मैं ढूँढ़ रही हूँ
काव्य साहित्य | कविता ममता मालवीय 'अनामिका'15 Oct 2020 (अंक: 167, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
मैं ढूँढ़ रही हूँ उस अपने को,
जो मेरे सामने रहता है।
मेरे पास होकर भी,
जो कोसों दूर रहता है।
क्यों वो अपनापन,
वो अहसास नहीं दिखता है,
जिसे देखने का सपना,
मेरी आँखों मे रोज़ पलता है।
मैं ढूँढ़ रही हूँ उस पल को,
जो मेरे दिल में रहता है।
एक नज़र उसे आज देखा,
वो पराया सा लगता है।
क्यों वो पहले जैसा,
लगाव नहीं दिखता है।
जिसे देखने का ख़्वाब,
मेरी आँखों में रोज़ पलता है।
मैं ढूँढ रही हूँ, उस साथ को,
जो मेरी सोच में रहता है।
जिसके साथ क़दम मिलाकर,
मुझे एक लगाव सा लगता है।
क्यों वो पहले जैसा ,
रास्ता नहीं दिखता है।
बढ़ती राहों पर ही ,
हर हमराही मुड़ता है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- आँचल
- आत्मविश्वास के झोले
- एक नई सोच
- एक ज़माना था
- कर्तव्य पथ
- गुमराह तो वो है
- चेहरा मेरा जला दिया
- जिस दिशा में नफ़रत थी
- जीवन पाठ
- डर का साया
- मंज़िल एक भ्रम है
- मंज़िल चाहें कुछ भी हो
- मदद का भाव
- माहवारी
- मुश्किल की घड़ी
- मेरे पिया
- मैं ढूँढ़ रही हूँ
- मैं महकती हुई मिट्टी हूँ
- मैंने देखा है
- विजय
- वक़्त की पराकाष्ठा
- संघर्ष अभी जारी है
- संघर्ष और कामयाबी
- समस्या से घबरा नहीं
- सयानी
- क़िस्मत (ममता मालवीय)
- ज़िंदगी
स्मृति लेख
चिन्तन
कहानी
ललित निबन्ध
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं