मंज़िल चाहें कुछ भी हो
काव्य साहित्य | कविता ममता मालवीय 'अनामिका'1 Nov 2020 (अंक: 168, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
कैसे भी हो हालात मगर,
अपना हर फ़र्ज़ निभाते जाना।
बहना तुम एक दरिया सा,
अवसाद किनारे लगाते जाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
बनना तुम एक चट्टान कभी,
सहारा बेसहारों का बन जाना।
मुश्किलों में मुस्कुराना ऐसे,
जैसे झरनों से जल का बह जाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
धैर्य ख़ुद में इतना रखना की,
तुम एक मज़बूत बाँध बन जाना।
तक़दीर जो भी तुम्हे सौगात दे,
उसे बेहतरीन बनाते जाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
लड़ना तुम अपने हक़ के लिए,
कभी ख़ुद से जंग कर जाना।
जीत होगी तुम्हारे स्वाभिमान की,
तुम बस कोशिश करते जाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
मन चाहा मिलेगा सदैव,
ऐसी चाहत न ख़ुदा से लगाना।
जितना नसीब हुआ है तुम्हें,
बस उसे ही हमेशा सहेजते जाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
ज़रूरी नहीं हमेशा रहे साथ कोई,
तुम ख़ुद को इतना क़ाबिल बनाना।
चलना, गिरना, दौड़ना फिर उठना,
लेकिन अपना जुनून कभी न गँवाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- आँचल
- आत्मविश्वास के झोले
- एक नई सोच
- एक ज़माना था
- कर्तव्य पथ
- गुमराह तो वो है
- चेहरा मेरा जला दिया
- जिस दिशा में नफ़रत थी
- जीवन पाठ
- डर का साया
- मंज़िल एक भ्रम है
- मंज़िल चाहें कुछ भी हो
- मदद का भाव
- माहवारी
- मुश्किल की घड़ी
- मेरे पिया
- मैं ढूँढ़ रही हूँ
- मैं महकती हुई मिट्टी हूँ
- मैंने देखा है
- विजय
- वक़्त की पराकाष्ठा
- संघर्ष अभी जारी है
- संघर्ष और कामयाबी
- समस्या से घबरा नहीं
- सयानी
- क़िस्मत (ममता मालवीय)
- ज़िंदगी
स्मृति लेख
चिन्तन
कहानी
ललित निबन्ध
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं