ख़त – 001: विरह भी प्रेम है
आलेख | ललित निबन्ध ममता मालवीय 'अनामिका'15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
प्यारे दुष्ट,
कहते हैं जिससे जितना प्रेम होता है, उससे उतनी ही शिकायतें भी होती हैं। मगर ये शिकायतें कभी प्रेम को नहीं निगलतीं। आज अगर तुम्हारी शिकायतें लिखने बैठूँ—तो किताबें कम पढ़ जाएँगी। मगर अंतिम पृष्ठ पर लिखा मात्र एक शब्द, "तुम मेरा प्रेम हो" उन सभी शिकायतों को सारहीन भी कर देगा।
उस किताब के पहले और आख़िरी पन्ने में सदैव एक जंग सी रहेगी। जैसी जंग है मेरे हृदय और मस्तिष्क के बीच।
मस्तिष्क कभी तुम्हारे द्वारा की गई मेरी अवहेलना भूल नहीं पाएगा। और हृदय कभी तुमसे प्रेम करना भूलना नहीं चाहेगा।
अपने प्रेम को पीड़ा देने के अपराध में तुम कभी झाँक नहीं पाओगे मेरी आँखों में।
और मेरा प्रेम होने के नाते तुम्हें सदैव मिलते रहेंगे, मेरे द्वारा लिखे प्रेम पत्र।
तुम्हें कभी मुक्ति नहीं मिलेगी, मेरे एक तरफ़ा संवाद से।
—तुम्हारी प्रिये
3 जून 2021
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पाण्डेय सरिता 2021/06/09 06:09 PM
बहुत बढ़िया