अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अथ केश अध्यायम्

 

हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार पाँच मुख वाले ‘पंचानन’ ब्रह्मा ने पंच तत्वों से मानव की रचना की और पार्थिव जीवन के संवेदों को ग्रहण करने के लिए उसे पाँच ज्ञानेंद्रियाँ दीं। इन सभी ज्ञानेंद्रियों के सामंजस्य और संचालन का केंद्र बनाया मस्तिष्क को और इसे शरीर के सर्वोच्च भाग में, सभी ज्ञानेन्द्रियों से ऊपर, स्थापित कर दिया। इस अति महत्त्वपूर्ण मानव अंग की रक्षा के लिए उसे पाया मेटर, ड्यूरा मेटर नामक दो झिल्लियों ने उसे ढक दिया। फिर सख़्त खोपड़ी की हड्डी के ऊपर मोटी खाल चढ़ा कर उसे ‘मटकी’ में बंद कर दिया। इतने से भी संतुष्टि ना हुई तो घने बालों की एक और गुदगुदी परत उस पर चढ़ा दी। इस आलेख में इस महत्त्वपूर्ण अंग मस्तिष्क के सबसे ऊपरी आवरण अर्थात्‌ केश, कच, चिकुर, कुंतल, अलक, के बारे में ही बातें होगी! यह अध्याय केश का ही तो है न। 

हिंदू धर्म के अनुसार जीवन के सोलह संस्कारों में एक संस्कार ‘चूड़ाकर्म’ भी है, जिसमें जन्म के साथ मिले केशों को खोपड़ी पर से पूरी तरह साफ़ कर दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि जब तक जन्मजात बाल सिर पर रहते हैं, तब तक मनुष्य को अपने पिछले जन्म की कुछ स्मृति शेष रहती है। अतः इहलौकिक जगत की बुद्धि को विकसित करने के लिए इन केशों का सिर पर से हटना ही ठीक है। 

परिजनों की मृत्यु के बाद शोक प्रकट करने के लिए केश कटवाए जाते हैं। 

कोई व्यक्ति यदि संसार के मोह-माया को त्याग कर संन्यास ग्रहण करता है तो उसके सिर से भी केशराशि हटा दी जाती है। सिद्धार्थ गौतम के बारे में भी तो यही कहा जाता है कि वह सोती यशोधरा को छोड़कर जब सांसारिक सुखों का त्याग कर घर से निकले तो उन्होंने वन जाने से पूर्व रथ से उतर कर सबसे पहले अपने केश ही काट डाले थे। केशों से प्रेम सांसारिक मोह का प्रतीक है‌। एक समय ऐसा भी था जब विधवा स्त्रियों को लंबे बाल रखने की अनुमति नहीं थी। 

दक्षिण भारत के तिरुपति मंदिर में बालों का त्याग सबसे बड़ा दान माना जाता है। इन सब मान्यताओं से यही स्पष्ट होता है कि मनुष्य अपने शरीर के इस ‘मृत’ भाग से इतना अधिक प्रेम करता है कि इसके महत्त्व को‌ नकारा नहीं जा सकता। 

तनिक विचार तो कीजिए!, यदि शिव के सिर पर जटाजूट न होते तो पृथ्वी पर हमें पावन सुरसरि भी न मिलती क्योंकि ब्रह्म कमंडल से निकलने वाली यह नदी इतनी वेगवती थी कि संपूर्ण पृथ्वी को ही बहा देती। वह तो भला हो शिव के जटाजूटों का जिनमें गंगा उलझ गई और फिर एक पतली लट खोलने पर पृथ्वी पर भगीरथ के पूर्वजों को मुक्ति देने आई। 

पौराणिक कथाओं से लेकर लोक कथाओं तक केशों की महिमा दिखलाई देती है। लोक कथाओं में तो यदि स्त्री अपराधी है तो उसे दंड स्वरूप बाल कटवा कर, गधे पर बिठाकर देश निकाला दिया जाता था। 
मानव शरीर को ढकने वाली त्वचा की अधिकांश कोशिकाओं में बाल होते हैं, जो साधारणतया दिखाई ‘नहीं देते। कहीं-कहीं के बाल तनिक प्रमुखता से दिखलाई भी पड़ते हैं, जैसे: भौहें, बरौनी, मूँछ-दाढ़ी, छाती के बाल इत्यादि, तो, इनमें से किसी की भी बाढ़ इतनी शीघ्रता से नहीं होती, जितनी सिर के केशों की। 

मेरे विचार से इसका कारण यह है कि मस्तिष्क हमारा सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है, जो सिर के भीतर है। वहाँ के केश सबसे त्वरित गति से बढ़ते और सबसे अधिक घने होते हैं,जिससे मस्तिष्क की सुरक्षा पंक्ति में कोई व्यवधान न आए।

मनुष्य की सभ्यता के विकास के साथ-साथ सिर के बालों के महत्व का भी विकास होता गया है। गर्म देशों में तो अधिकांश लोगों के बालों का रंग काला होता है परंतु ‘काकेशियन’ समुदाय के मनुष्यों में बालों के रंग में विविधता पाई जाती है, इनके कई समुदायों में तो बालों के रंग से मनुष्य की बुद्धि और स्वभाव का भी अनुमान लगाने की प्रथा है।

जीव विज्ञान के अनुसार बाल बढ़े हुए नाखूनों के समान ‘मृत’ होते हैं। परंतु जहाँ बढ़े हुए नाखून अस्वास्थ्यकर और कुरूपता के चिन्ह माने जाते हैं वहीं शरीर के सबसे ऊँचे भाग में निवास करने के कारण केशों की शान-ओ-शौकत और रौब के तो कहने ही क्या! आदिकाल से ही मनुष्य ने सौंदर्य और शौर्य (मूँछें) से बालों का सम्बन्ध जोड़ लिया ! तनी हुई मूँछें यदि प्रतिष्ठा का प्रतीक हैं, तो गलमुच्छों वाला योद्धा वीरता का द्योतक है। छाती के बाल पुरुष की उदारता और विश्वसनीयता का परिचायक माने जाते हैं, एक कहावत सुनने में आती है —जेकरे छाती एक न बार ओसे रह्यो सदा हुसियार, अर्थात बंजर छाती वाला पुरुष विश्वास के योग्य नहीं होता, इस कथन में कितनी सत्यता है यह मुझे ज्ञात नहीं है

कटिचुंबी केश राशि को देखकर नायक नायिका पर जान छिड़कने लगता है, नदी के पानी में बहते हुए सुनहरे बालों के रेशे को देखकर नायक अपनी जान की बाज़ी लगा सुनहरे बालों की स्वामिनी की तलाश में निकल पड़ता है। 

शिशु राम की घुँघराली लटों‘पर तुलसीदास के साथ सभी भक्तों के मन मुग्ध हैं, तो ‘गुडाकेश’ कृष्ण की लटें गोपियों का चित्त चुरा लेने में सक्षम है। यदि नायिका के बालों की उपमा नागिन से दी जाती है तो नायक के घुंघराले बालों को ‘भंवरा’ भी कहा जाता है! तात्पर्य यह कि प्रेम संबंध बढ़ाने में केशों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

बालों को विशेष ढंग से काटना, अलग-अलग तरह की सज्जा करना, भिन्न-भिन्न रंगों में रँगना आदि ऐसी क्रियाएँ हैं जिनके करने वाले लोग आजकल ‘कलाकार’ की श्रेणी में आते हैं और भरपूर धनार्जन भी करते हैं। किसी ज़माने का सीधा सादा ‘नाई’ अब ‘हेयर स्टाइलिस्ट’ जैसे विशिष्ट नाम से जाना जाता है। बाल कटाने के लिए आपको पहले से समय निश्चित करके जाना होता है। किस शैली में कटे हुए बाल आप के ऊपर सबसे अच्छे लगेंगे, यह सुनिश्चित करने के लिए आपके चेहरे के साथ भिन्न-भिन्न शैलियों में कटे बालों को लगाकर, ‘कंप्यूटर पर दिखाया भी जाता है कि आप अपनी मनपसंद शैली का चुनाव कर सकें!!

कुंतल राशि को सजाने-सँवारने, स्वस्थ (?) रखने के लिए कितने व्यवसाय पनप गए हैं, इस पर कभी आपने ध्यान दिया है? हेयर ऑयल, हेयर शैंपू, कंडीशनर तरह-तरह के हेयर डाई, बालों को अपनी जगह पर ही टिकाए रखने के लिए हेयर क्रीम, इत्यादि, इत्यादि।

सिर के बालों को सजाने सँवारने के लिए जितने उत्पाद बन रहे हैं, उतने ही बालों को कम न होने देने के लिए भी। स्त्री हो या पुरुष, यह आशंका होते ही कि सिर के बाल झड़ने लगे हैं उसकी रातों की नींद हराम हो जाती है। कितने ही विटामिन, टॉनिक खाए जाते हैं। कितने ही शैंपू-तेल-लोशन लगाए जाते हैं, कितने ही योगासनों का अभ्यास किया जाता है। 

चिकित्सा विज्ञान भी गंजे सिर की चिकित्सा करने में पीछे नहीं रहा है, ट्रिकॉलोजी नामक शाखा तो केवल बालों की चिकित्सा करने का विभाग है। जब सारे उपाय असफल हो जाएँ तो आजकल लोग बालों के प्रत्यावर्तन का सहारा लेते हैं। इस चिकित्सा में बाल उत्पन्न करने वाली कोशिकाओं को सिर की त्वचा के नीचे प्रत्यावर्तित कर दिया जाता है, जो धीरे-धीरे बालों को बढ़ाकर गंजेपन को समाप्त करती हैं (?)। सफलता कितने प्रतिशत मिलती है इसके आँकड़े कभी उपलब्ध नहीं होते। 

हालाँकि चिकित्सक कहते हैं कि गिरते हुए बालों को रोकना किसी भी सौंदर्य प्रसाधन से सम्भव नहीं है परन्तु फिर भी इस सपने को भुनाने से व्यापारी वर्ग चूकता नहीं है। 

किसी भी उपाय से भी जब सिर के बाल न बचें तो एक ‘विग’ का ही रास्ता बचता है, परन्तु इसे बनवाना भी साधारण मनुष्यों के लिए आसान नहीं है, मैंने तो सुना है कि ‘विग’ लाखों रुपए तक के आते हैं!! जय हो अलक ललक की!! 

विडंबना देखिए कि सारे शरीर के बाल वैज्ञानिकों की दृष्टि में एक ही तरह के ‘मृत’ अंग होते हैं, जिनका काम केवल शरीर को कुछ अंशों में सुरक्षा देना ही रह जाता है। परन्तु जहाँ सिर के बालों को सुरक्षित रखने के लिए, उन्हें घना, काला, लंबा, चमकीला, नर्म, और ख़ूबसूरत बनाने के लिए धन व्यय किया जाता है, वहीं शरीर के अन्य भागों पर उगे हुए बालों को नष्ट करने के प्रयत्न में आधुनिक मनुष्य अपना धन और समय व्यय करता है। चेहरे के बाल साफ़ करने के लिए महँगे से महँगे सेफ़्टी रेज़र, शेविंग क्रीम, आफ़्टर शेव लोशन बनाए जाते हैं। शरीर के अनचाहे बालों से छुटकारा पाने के लिए बाल सफा क्रीम, बाल सफा लोशन, लेज़र ट्रीटमेंट थ्रेडिंग, वैक्सिंग और भी न जाने क्या-क्या उपाय प्रचलित हैं। 

अभी तक हमने बालों के होने और न होने पर बातचीत की है। केशों की एक और विशेषता है, मनुष्य जब वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होता है, तब उसके बाल कम तो होते ही हैं साथ ही साथ उनका रंग भी बदल जाता है। यौवन में चाहे बाल किसी भी रंग के रहे हों—काले, भूरे, लाल, सुनहरे परन्तु बुढ़ापा आने पर हर प्रजाति के मानव के बाल केवल सफ़ेद रह जाते हैं, यहाँ प्रकृति ने सभी रंगभेद समाप्त कर दिए हैं। 

यों देखा जाए तो सफ़ेद बाल जीवन के अनुभवों के एकत्रित करने का संदेश देते हैं, ‘हमने धूप में बाल सफ़ेद नहीं किए हैं’ वाला मुहावरा तो आपने अवश्य ही सुना होगा!, परन्तु मानव सदैव से चिरयौवन का प्यासा रहा है। कोई भी बूढ़ा दिखलाई नहीं पड़ना चाहता! जब तक हो सके बालों को काला करके युवा दिखने का प्रयत्न होता है! 
अंत में मैं यह केश अध्याय कवि केशव की उन प्रसिद्ध पंक्तियों से समाप्त करती हूँ जिसमें उन्होंने सौंदर्य का प्रतीक और प्रतिष्ठा का चिह्न माने जाने वाले केशों को ‘दुश्मन से भी अधिक बड़ा दुश्मन’ कहा है:

केशव केसन अस करी, जस अरिहूँ न कराहिं।
चंद्रमुखी, मृग लोचनी, ‘बाबा’ कहि-कहि जांहिं॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अथ मम व्रत कथा
|

  प्रिय पाठक, आप इस शीर्षक को पढ़कर…

अथ विधुर कथा
|

इस संसार में नारी और नर के बीच पति पत्नी…

अथ-गंधपर्व
|

सनातन हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार इस…

आँखों देखी, जग भुगती (सफ़रनामा)
|

मुझे याद है मेरे गाँव नारायणगढ़, ज़िला अम्बाला,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

यात्रा-संस्मरण

ललित निबन्ध

काम की बात

वृत्तांत

स्मृति लेख

सांस्कृतिक आलेख

लोक कथा

आप-बीती

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं