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अमर प्यास –मर्त्य-मानव 

 
यह शाश्वत, अतृप्त, अमरत्व की प्यास
मर्त्य-मानव से क्या-क्या करवाती है! 
अभेद्य दुर्ग, अनुपम मंदिर-महल
यही अनबुझ प्यास तो मानव से बनवाती है, 
कंदराओं के भित्ति-चित्र, शिलाओं के अमिट लेख, 
चिकित्सा जगत के जीवनवर्धक 
अनुपम उपहार, 
पीड़ाहीन रहने के लिए
विज्ञान की खोजें और नए-नए आविष्कार! 
भला किसके लिए जाते हैं? 
क्या ये सभी हमारी अंतर्निहित
अमरत्व की प्यास को ही नहीं जताते हैं? 
ये वेद-ये पुराण, 
ये महाभारत-रामायण के 
ललित आख्यान—
क्या उसी चिरंतन, अमर रहने की प्यास के नहीं है प्रतीक? 
क्या इनके रचनाकार अपनी कृतियों के माध्यम से नहीं हो गए ‘अमर’ हमारे बीच? 
 
देव और दानवों द्वारा किया गया
सागर का मंथन, 
सत्कर्म करते हुए अपना ‘नाम’ छोड़ पाने के लिए किया जाता आत्मचिंतन, 
सभी तो प्रयत्न हैं ‘अमर’ हो पाने के
काया के क्षय के बाद भी, याद किए जाने के
 
अमृत पाने की चाह में सागर का मंथन 
सृष्टि के उदय काल में हुआ, 
इसी सनातन प्यास के वशीभूत 
इस कलिकाल तक हम
प्रभु से माँगते हैं 'संतति 'की दुआ, 
 
पाकर संतान हम निहाल हो जाते हैं 
माता-पिता संतान में अपना अंश
खोजने लग जाते हैं, 
अगली पीढ़ी में देखकर के अपने कुछ अंश-चिह्न
हम मानो कुछ-कुछ आश्वस्त-से हो जाते हैं 
काया से न सही गुण-सूत्रों के माध्यम से 
‘अमरत्व’ पाने की दिशा में एक क़दम बढ़ाते हैं! 
 
आदिकाल से अनश्वर चली आती यह प्यास
कभी नहीं बुझती, 
मानव के चौतरफ़ा ‘विकास’ की शायद 
यही है सबसे ‘मुख्य-कुंजी’॥

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