नाग पंचमी का त्यौहार
आलेख | सामाजिक आलेख सरोजिनी पाण्डेय15 Aug 2021 (अंक: 187, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
भारतीय परंपरा के अनुसार वर्षा ऋतु में आने वाला श्रावण या सावन का महीना शिव को अर्पित है। मुख्य रूप से वर्षा के जल पर निर्भर कृषि-प्रधान देश में वर्षा काल को ईश्वरीय समय मानना अति-स्वाभाविक है। इस माह में कई व्रत-त्योहार मनाए जाते हैं, जैसे: हरियाली तीज, नाग-पंचमी, सावन के सोमवार, रक्षाबंधन आदि।
इनमें जो पर्व उपहारों को महत्व देते हैं उनका प्रचार-प्रसार पूरे देश में और यहाँ तक कि विदेशों में बसे भारतीयों के बीच भी हो गया है। शायद इसका कारण समाज में 'बाज़ार' की प्रभुता हो। जो त्यौहार केवल परंपरा और क्रियाओं को महत्व देते हैं, वे मात्र 'आँचलिक' होकर रह गए हैं। संभवतः 'बाज़ार' की चकाचौंध के कारण उनका महत्व भी घटता ही जा रहा है। जहाँ हरियाली तीज, जिसमें बेटी-बहू को उपहार दिए जाते हैं, का प्रसार दूर-दूर तक है, वहीं इसके दो दिन बाद मनाए जाने वाले त्योहार, नाग-पंचमी, के बारे में लोगों की जानकारी अधिक नहीं है।
मैं जब भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में पल-बढ़ रही थी, उस काल की नाग पंचमी की यादें मुझे बड़ी प्रिय हैं। नाग पंचमी को कुछ क्षेत्रों में 'गुड़ियाँ' भी कहा जाता है।
तो, नाग पंचमी को प्रातः काल ही घर का कोई वयोवृद्ध व्यक्ति, नहा-धो, शुद्ध वस्त्र धारण कर दूध का बर्तन ले, घर से निकल जाता और खेतों में, बाग़ों-बग़ीचों के आसपास बाँबियाँ ढूँढ़ कर उसमें दूध डाल आता था। माना यह जाता कि साँप को दूध पिलाया गया है। साँप चूहों का भोजन कर, खेती की रक्षा करता है, अन्न बचाता है, अतः उसे दूध पिलाना कृतज्ञता ज्ञापन ही है।
माँ रसोई के द्वार पर चौखट के दोनों ओर काजल और सिंदूर के नाग-नागिन उकेरतीं, पूरे वर्ष नाग देवता की कृपा पाने के लिये! उनके भोग के लिए पूरी, खीर, अरबी की तरकारी बनती थी, जिसकी ख़ुशबू से सारा घर भर जाता क्योंकि उन दिनों रसोई घर में चूल्हे के ऊपर एग्ज़ास्ट फ़ैन का रिवाज़ जो न था। हवा के नम और भारी होने के कारण घी की सुगंध बड़े लंबे समय तक घर के अंदर रहती और हम बिना भोजन किए भी उस सुस्वादु भोजन के कल्पित रसास्वादन के आनन्द में डूबते-उतराते रहते। अरबी की सब्ज़ी का तर्क यह होता कि नाग देवता धरती के अंदर रहते हैं, इसलिए उन्हें ज़मीन के अंदर उगने वाली चीज़ें अधिक प्रिय होती होंगी। इन तर्कों का कोई वैज्ञानिक कारण हो ना हो परंतु उस आयु में सब कुछ विश्वसनीय लगता, साथ ही स्वादिष्ट भी।
नाग पंचमी का त्यौहार मनाने के लिए घर की हर बेटी के लिए पुराने कपड़ों से गुड़िया बनाई जाती, प्रत्येक के लिए कम से कम पाँच गुड़ियाँ! बाँस की अथवा मूँज की बनी, रंग-बिरंगी टोकरियों में ये गुड़ियाँ रखी जातीं। माँ जब गुड़िया बना रही होती तो वह भी बड़ा आकर्षक लगता। मैं चुपचाप घंटों बैठकर उनकी व्यस्तता और सधे हाथों का कमाल देखती रहती। सफ़ेद महीन कपड़े को मोटी बत्ती के आकार में या फिर चरखे में काती जाने वाली पूनी के जैसा बना, उसके बीचो-बीच काला धागा लपेट कर (जो पुराने परांदे या चुटीले से लिया गया होता) गुड़िया के बाल बन जाते। लाल तागा पिरो कर उससे सिंदूर भरी मांग बन जाती, काजल से आँखें और लाल-आलते से बिंदिया और मुस्कुराते हुए होंठ बनातीं। कपड़े की पतली बत्तियों से गुड़िया की बाँहें बना, उसकी कलाइयों में लाल-हरे डोरे से चूड़ियाँ पहना देतीं। और फिर अंत में कमर में साड़ी लिपटा उसे पूरा करतीं। एक दिन में कई-कई गुड़िया बनातीं थीं मेरी माँ।
नाग पंचमी की पहली रात में चने भिगो दिए जाते और अगले दिन उसकी घुघुनी बनती। बाँस की डंडियों को, रंग कर, कभी रंगीन रिबन या कपड़े की पट्टी भी लपेट कर, सुंदर बनाया जाता। हर लड़के (भाई) को एक छड़ी मिलती।
सुबह-सुबह उचित स्थान देखकर झूला डाला जाता और सबसे पहले उस पर नाग-नागिन, उसके बाद देवी-देवताओं का नाम लेकर झूले को पींगें दी जातीं। इतना सब हो जाने के बाद बारी आती किसी व्यक्ति के झूले पर बैठने की!
सावन की उमस भरी गर्मी में झूले पर झूलना स्वर्गीय सुख देता। माँ मीठे स्वर में कजरी गातीं– "झूला पड़ा कदम की डाली / झूलें राधा प्यारी नाय s s s।"
संध्या समय हम सब लड़कियाँ सज-धज कर टोकरियों में अपनी गुड़ियाँ और चने की घुघुनी का कटोरा लेकर घर से निकलतीं। भाई लोग भी सजे-धजे, हाथों में रंगीन छड़ियाँ लिए साथ होते। किसी तालाब के किनारे मेला लगता, जिसे 'गुड़ियाँ का मेला' कहते। ताल के किनारे लड़कियाँ हँसती-खिलखिलाती, गाना गाती अपनी गुड़िया नीचे फेंकती जातीं और भाई लोग उसे अपनी छड़ियों से पीटते। गुड़िया पिट जाने पर सब लोग मिलजुल कर घुघुनी खाते-खिलाते। मेले से मिठाई ख़रीदते और घर वापस आते।
इस तरह नाग पंचमी का त्यौहार सम्पन्न होता।
अब इस तरह परंपरागत तरीक़े से नाग पंचमी का त्यौहार मनाया जाना लगभग लुप्त हो गया है।
इस नर-नारी समानता के नारे के युग में गुड़ियों का पीटा जाना पितृसत्तात्मक समाज की मनमानी का रूप लगता है, परंतु उस उम्र में यह अति आकर्षक त्यौहार लगता था !
त्योहारों का आनंद लेने के लिए कभी-कभी तर्क बुद्धि को ताक़ पर भी रख देना चाहिए . . . है न!!
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टिप्पणियाँ
अर्णव 2021/08/15 11:52 AM
इस त्यौहार के बारे में पढ़कर मुझे अच्छा लगा कि मैं आप के बचपन के बारे में कुछ जान सका।
राजीव रत्न 2021/08/13 05:11 PM
अद्भुत एकाग्रता से लेखिका ने इन त्योहारों के एक एक पल को जीया होगा, तभी तो आधी सदी बाद भी ंउन पलों की ऐसी जीवंत प्रस्तुति, पाठकों के मन में स्वयं के बचपन की भूली हुई यादों को चलचित्र की तरह फिर से दिखा जाती हैं। वाकई बुद्धि और लेखनी कि जुगलबंदी गज़ब की है। ं
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