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झीलें—दो बिम्ब

 (1) 
नीलमणि सी प्रभासित
एक नीली झील
लद्दाख की हिमालयी उपत्यका में
र्निमेष, ताकती निरभ्र, नील-नभ 
 
पवन के प्रचालन से
टूट गया तनिक ध्यान
हिल गया हृद्‌ में 
प्रतिबिंबित वह नील गगन 
 
होकर कुछ सचेत, 
झील पूछ बैठी
पास की शिखरावलि से, 
“क्यों नहीं स्थिर हो बैठती
दो छिन? 
उठती ही जा रही है ऊपर, 
तू दिन प्रतिदिन!” 
 
बोली शिखरावलि-
“इच्छित है आकाश
प्रियतम वह मेरा है! 
चूम लूँ उसे, एक दिन, 
यही प्रयास मेरा है।”
 
झील बोली-
“छलना में जीती है तू, 
सुना है क्या कभी तूने? 
किसी शिखर ने सचमुच
छू लिया हो आकाश! 
 
“मेरा भी आराध्य
वही नील नभ है! 
देख मुझे ग़ौर से 
छिपा लिया है मैंने 
अपने हिस्से का
एक टुकड़ा आकाश 
अपने इस सीने में!” 
 
यह कहकर झील
फिर मौन हो गई
उर के आकाश से 
संवाद में खो गई। 
 
(2) 
सहयाद्रि की शृंखलाओं की तलहटी में
लेटी थी, 
शान्त, स्थिर, मौन झील
अंक में समेटे अपने
पर्वत शिखर, वन, बादल, नीर
तोष उसके हृदय का परिलक्षित था 
कोमल, झिलमिल लहरियों के मिस
प्रदीप्त था आनन उसका
सूर्य की स्वर्णिम रश्मियों से, 
 
तपता सूर्य भी आकाश में अवस्थित था, 
पुष्करिणी का सानिध्य
उसे भी तो अभीष्ठित था! 
 
दिन भर की आकाश यात्रा से
सूर्य सहसा व्याकुल हो गया, 
पहाड़ियों की ढलान से लुढ़क
शान्त, शीतल, मौन, झिलमिल
झील की गहराई में जाकर सो गया। 

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टिप्पणियाँ

डॉ पदमावती 2022/09/13 01:46 PM

आज की यथार्थवादी कविताएँ सूक्ष्म अनुभूति की मार्मिकता बिसरा चुकी हैं! जायज़ भी है …. सच की कड़वाहट को झेलना भी इतना आसान कहाँ? ऐसे में ठंडी हवा का झोंका आ गया आपकी कविताओं के साथ । सबने कहा छायावाद चला गया! लेकिन कहाँ गया? नहीं ! पुनः जीवित हो गया है आपकी भावानुभूतियों में ! सुंदर सुकोमल शब्द चयन । भावानुकूल भाषा । बहुत बहुत सुंदर ।

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