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लालच बतरस का

मूल कहानी: इल् फ्लोरेंटिनो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द फ़्लोरेन्टाइन); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

प्रिय पाठक, 

लोक कथाएँ अक़्सर ही परी कथाएँ और कल्पना लोक की होती हैं, साथ ही वे काल्पनिक चरित्रों के माध्यम से तत्कालिक समाज में मान्य मूल्यों की ओर भी संकेत करती हैं। 

आज के समय में जब अधिकांश लोग अपना मूल निवास त्याग कर पलायन (??) में विश्वास रखते हैं, तब यह कहानी अपने ही शहर-गाँव से जुड़े रहने का संदेश देती हुई कैसी लगती है? बताइएगा:
 

एक बार की बात है, होशियारपुर नामक नगर में एक आदमी रहता था, जो बातें सुनने और करने का शौक़ीन था। हर शाम वह बाग़, बग़ीचे और बाज़ारों में घूमने-बतियाने और बातें सुनने जाता था। कुछ ही दिनों में उसे लगने लगा कि दूसरे लोग दुनिया के दूसरे देशों और शहरों की बातें करते हैं और वह सबका मुँह देखता रह जाता है, क्योंकि वह अपना शहर छोड़ कर कभी बाहर निकला ही नहीं, तो भला दूसरी जगहों की बातें करता भी तो कैसे? धीरे-धीरे उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। आख़िरकार जब वह अपनी बलवती इच्छा के आगे हार गया तो एक दिन अपना सब कुछ बेच कर यात्रा के लिए निकल पड़ा, जिससे वह दुनिया देखे और लौटकर अपने अनुभव रस ले-लेकर सब को सुना सके। 

चलते-चलते वह बहुत दूर निकल गया। जब रात हुई तो उसने एक मठ में डेरा डालने की सोची। मठ के पुजारी ने उसे शरण दे दी। रात को जब पुजारी अतिथि के साथ भोजन करने बैठा तो उसने होशियारपुरिये से बातचीत शुरू की। जब उसने सुना कि होशियारपुरिया इसलिए यात्रा पर जा रहा है कि लौटकर अपने शहर में लोगों को अपनी बातचीत में यात्रा के क़िस्से सुनाया करे तो वह बोला, “ऐसी इच्छा तो मेरे मन में भी अक़्सर उठती है। अगर तुमको एतराज़ ना हो तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ?”

“यह तो बहुत अच्छा होगा,” होशियारपुरिया बोला, “एक साथी भी हो तो यात्रा का आनंद कई गुना बढ़ जाता है।”

अगली सुबह पुजारी और होशियारपुरिया साथ-साथ चल पड़े। अगली रात होने पर उन्होंने एक किसान के घर में रैन-बसेरा माँगा। किसान ने बातों-बातों में उनसे पूछ लिया कि वे कैसी यात्रा पर हैं? तो उन्होंने बता दिया कि वे इसलिए घूम रहे हैं कि अपनी यात्रा के बारे में दूसरों को कहानियाँ सुना सकें। किसान को लगा कि वह भी तो ऐसे सैर-सपाटे करना चाहता है! और अगली सुबह वह भी इन दोनों के संग चल पड़ा! 

चलते-चलते जब उन्होंने लंबी दूरी तय कर ली तो एक दैत्य के महल के आगे पहुँचे। 

तीनों आपस में सलाह करने लगे कि अब क्या किया जाए? रात भी हो रही थी। इस पर होशियारपुरिये ने सुझाया, “चलो द्वार खटखटाते हैं, अगर हम उससे मिल पाए तो लौटकर दैत्य के क़िस्से लोगों को सुनाया करेंगे!”

द्वार खटखटाया गया। दैत्य महल के बाहर आया और उसने इन तीनों को भीतर भी बुला लिया। जब वे भीतर आ गए तो स्वागत करने के बाद दैत्य ने कहा, “यदि आप लोग यहीं रह जाएँ तो मैं पुजारी और किसान को तो तुरंत काम पर रख लूँगा क्योंकि मंदिर में पुजारी और खेतों में किसान की ज़रूरत है। देर-सवेर इस होशियारपुरिये के लिए भी कोई न कोई काम निकल ही आएगा।”

तीनों ने आपस में मशविरा किया। इस बात में कोई शक नहीं था कि दैत्य के लिए काम करना एकदम अनोखी बात होगी। उनको दूसरों को सुनाने लायक़ बातों का तो ख़ज़ाना ही मिल जाएगा! 

और फिर तीनों ने दैत्य का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 

दैत्य ने उन्हें सोने की जगह दिखा दी और सारी शर्तें और काम के बारे में अगले दिन बातें करना तय हुआ। 

अगले दिन सुबह दैत्य ने पुजारी से कहा, “आप मेरे साथ आइए और मंदिर के दानपात्र और हुँडिओं का हिसाब-किताब देख लीजिए।” 

दोनों एक कमरे में गए और कपाट बंद कर लिया। होशियारपुरिया बेचैन हो गया। वह सब कुछ जानने को उत्सुक जो था! उसने अपनी आँखें कपाट की दरार से सटा दीं। उसने देखा कि जैसे ही पुजारी बही-खाते देखने के लिए झुका, दैत्य ने उसकी गर्दन पर पीछे से तलवार चला दी और फिर लाश को चोर दरवाज़े से बाहर लुढ़का दिया। होशियारपुरिया सोचने लगा कि इससे मज़ेदार क़िस्सा तो पूरे होशियारपुर में किसी के पास नहीं होगा। मुश्किल बस यह है कि इस कहानी पर कोई जल्दी विश्वास नहीं करेगा। कुछ देर में दैत्य इन दोनों के पास आया और बोला, “पुजारी को तो मैंने उसके काम पर लगा दिया, अब किसान की बारी है। उसको भी अपने खेतों के बारे में बता दूँ।, खसरा-खतौनी देख ले, तो उसे पता चल जाएगा कि कहाँ, कितने और किस चीज़ के खेत हैं।”

पुजारी की हालत से अनजान किसान दैत्य के साथ चल पड़ा। 

दरवाज़े की दरार से इस बार भी होशियारपुरिये ने किसान को खसरा-खतौनी पर झुकते और उसकी गर्दन कट कर ज़मीन पर लुढ़कते देखा। उसका भी शव पुजारी के शव की तरह चोर-दरवाज़े से बाहर फेंक दिया गया। 
होशियारपुरिये का दिल बल्लियों उछल रहा था कि इतनी सारी अनोखी घटनाओं के क़िस्से वह कैसे सुना पाएगा!!! 

अचानक उसे झटका लगा और वह पसीने से भीग गया। ये सारे क़िस्से तो वह तभी सुना पाएगा जब वापस जा पाएगा!! 

उसे समझ में आ गया कि अब उसकी ही तो बारी थी! 

वह अपनी जान बचाकर भागने की सोच ही रहा था कि दैत्य कमरे से बाहर आया। दैत्य ने होशियारपुरिये से कहा, “किसान भी काम पर चला गया है। आओ हम तुम खाना खा लें, फिर तुम्हारे काम के बारे में सोचता हूँँ!”

दोनों खाना खाने बैठे होशियारपुरिये के गले में निवाला नीचे नहीं सरक रहा था, डर के मारे उसका बुरा हाल था। भाग निकलने की तरकीब सोचते-सोचते, बीच-बीच में वह दैत्य का चेहरा भी ताक लेता था। जैसे ही होशियारपुरिये का ध्यान दैत्य कि आँखों पर गया—यह क्या!! दैत्य एक आँख से भेंगा था। खाना ख़त्म होने पर होशियारपुरिया दैत्य से बोला, “भगवान की लीला भी ग़ज़ब है, आपके जैसे सजीले की एक आँख . . .”

दैत्य अपनी भेंगी आँख के कारण लज्जित तो रहता ही था, जब कोई दूसरा उसके बारे में कुछ कह दे, तो उसका दुख कई गुना बढ़ जाता था। वह इस बात से तिलमिला उठा। तभी होशियारपुरिये ने आगे कहा, “मैं एक बूटी के बारे में जानता हूँँ जिससे आपकी आँख ठीक हो सकती है। मुझे ऐसा लगता है कि मैंने आपकी किसी फुलवारी में वह बूटी उगी हुई भी देखी है।”
 
“ऐसी कोई बूटी मेरे महल के आसपास है? उसे तुरंत लेकर आते हैं।”

दैत्य होशियारपुरिये को साथ लेकर महल से बाहर आया। बाहर आते हुए होशियारपुरिया बड़े ध्यान से महल का नक़्शा और चाबी रखने की जगह देखता जा रहा था कि कैसे महल से भागेगा। 

बाहर बग़ीचे में आकर उसने एक घास उखाड़ ली। वे वापस अंदर आ गए। 

अब होशियारपुरिया एक कटोरी में तेल लेकर, उसमें घास डालकर, पकाने लगा। 

“इस दवा से आपको कुछ देर बहुत दर्द होगा,” होशियापुरिया बोला, “आप दर्द सह लेंगे न!”

“बिल्कुल सह लूँगा,” दैत्य ने जवाब दिया। 

“यदि आप दवा डालते समय हिल गए और दवा इधर-उधर लग गई तो हो सकता है, दूसरी आँख भी ख़राब हो जाए। यह इलाज काफ़ी ख़तरनाक भी है। मैं सोचता हूँ कि आपको इस पत्थर की मेज़ से बाँधकर दवाई डालूँ, जिससे हिलने का ख़तरा ही ना रहे!”

अपनी भेंगी आँख ठीक कराने की चाह दैत्य में इतनी अधिक थी कि वह मेज़ से बँधने को तैयार हो गया। 

दैत्य को मेज़ से अच्छी तरह, कसकर, बाँध देने के बाद होशियारपुरिये ने गर्म तेल का कटोरा दैत्य की आँख में उडे़ल दिया और आँधी की तरह महल से भाग चला। वह मन ही मन सोचकर मगन हो रहा था कि इस कहानी को सुनकर तो सारा शहर हैरान ही रह जाएगा। 

दैत्य दर्द से इतनी ज़ोर से दहाड़ा कि सारा महल हिल गया। वह पत्थर की मेज़ को भी अपने साथ घसीटता हुआ होशियारपुरिये के पीछे झपटा। लेकिन उसे तुरंत यह एहसास हो गया कि भारी मेज़ के साथ वह होशियारपुरिये को कभी पकड़ नहीं पाएगा। तब उसे एक चालाकी सूझी। वह ज़ोर से चिल्लाया।

“ओ होशियारपुरी, तू मुझसे दूर क्यों भाग रहा है? इलाज कब पूरा करेगा? इसे पूरा करने के लिए क्या लेगा? क्या इस अँगूठी से तेरा काम हो जाएगा?” ऐसा कहते हुए उसने एक जादुई अँगूठी उसकी ओर उछाल दी। 

“क्यों नहीं!” होशियारपुरिया बोला, “इसको तो मैं अपने साथ ले जाऊँगा और उन लोगों को दिखाऊँगा जो मेरी बातों पर भरोसा नहीं करेंगे।” 

लेकिन जैसे ही उसने अँगूठी उठाकर अपनी अंगुली में डाली, उसकी अंगुली पत्थर की हो गई! एक छोटी सी पत्थर की अंगुली इतनी भारी लगने लगी कि वह ज़मीन में जम-सा गया। ऐसा लग रहा था अंगुली का वज़न कई टन हो गया है। उसने अँगूठी उतारने की भी कोशिश की, पर सब बेकार!! उधर पत्थर की मेज़ अपने साथ घसीटता हुआ दैत्य उसकी और बढ़ता आ रहा था। 

मरता क्या न करता?? 

होशियारपुरिये ने अपनी जेब से एक छोटा सा जेब-चाकू निकाला और अंगुली ही काट कर फेंक दी! और उड़न-छू हो गया। 

पत्थर की मेज़ घसीट कर आने वाला दैत्य टापता ही रह गया! 

दौड़ते-गिरते-पड़ते-हाँफते किसी तरह होशियारपुरिया अपने शहर होशियारपुर पहुँचा। दुनिया की सैर करके कहानियाँ जमा करने का और उन्हें रस ले-लेकर सुनाने का उसका नशा पूरी तरह उतर चुका था . . . उसकी कटी अंगुली के बारे में जब कोई पूछता तो वह कहता, “अरे, यह तो घास काटते समय कट गई थी।”

“क़िस्से रह गए धरे धराए 
लौट के बुद्धू घर को आए।” 

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