मेरी जिज्ञासा
आलेख | सामाजिक आलेख सरोजिनी पाण्डेय15 Apr 2025 (अंक: 275, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
ऐसा माना जाता है कि मनुष्य के विकास के लिए जिज्ञासा और तर्कशक्ति अत्यंत आवश्यक है। बच्चों में यह जिज्ञासा बहुत अधिक होती है, जो आयु के साथ कम होती जाती है क्योंकि धीरे-धीरे उसका संसार से परिचय विस्तृत, गहरा हो जाता है जबकि एक बच्चे के लिए हर नई वस्तु, हर क्रिया-प्रक्रिया नई और अनजान होती है। यह बात मैंने दो संतानों, को बड़ा होते हुए देखकर जानी। कई बार यह बात भी सुनने में आती है कि यदि जीवन में सुखी रहना है और ज्ञान का वर्धन करना है तो अपने बाल-सुलभ जिज्ञासु स्वभाव को बनाए रखना चाहिए!
बाल सुलभ जिज्ञासा के दो उदाहरण जो मुझे जीवन भर कभी न भूलेंगे, आपसे साझा करूँगी। पहली घटना उस समय की है, जब मैं अपने दो वर्ष के पुत्र को लेकर वाराणसी गई। उन दिनों हम मुंबई में रहते थे और वाराणसी हमारा मूल निवास है। ट्रेन से उतर, रिक्शा पर बैठकर बनारस की सड़कों से होते हुए हम घर की तरफ़ जा रहे थे। तभी सड़क के किनारे दो भैंसें चलती हुई दिखाई दीं तो मेरा बेटा जो मेरी गोद में बैठा था, वहीं उछलता-चिल्लाता-सा बोला, “माँ, देखो इतना बड़ा छुअर (सुअर)!” मैंने उसका मुँह अपने हाथ से बंद कर दिया क्योंकि मेरी भी आयु कम थी और मुझे इस बात की लज्जा आई कि मेरे बेटे को भैंस की पहचान नहीं है। अब मुंबई जैसे महानगर में उसने कूड़े के ढेर के पास कभी-कभार कुछ सूअर तो देखे थे लेकिन भला भैंस वह कैसे देखता? पहचान होने का सवाल ही नहीं था!
उसने प्रश्न किया, “यह छुअर क्यों नहीं है?”
उसको दोनों पशुओं के अंतर को समझाना पड़ा, यहाँ तक कि घर पहुँचने पर मैंने उसको उसके दादाजी के साथ, उस ग्वाले के यहाँ भी भेजा जहाँ से हमारे घर में दूध आता था ताकि वह इस पशु को और ठीक से पहचान ले। उसकी बाल-सुलभ जिज्ञासा ने एक नए पशु से उसका परिचय कराया।
दूसरी घटना उस समय की है जब मैं तीन वर्ष के अपने दौहित्र को लेकर यूरोप में ट्रेन से यात्रा कर रही थी। हम म्यूनिख से साल्सबर्ग नामक शहर में जा रहे थे। शहर की आबादी छोड़ने के बाद ट्रेन की पटरी के दोनों और खेत दिखाई देने लगे। मैं बालक को बताती जा रही थी, “यह देखो यह मकई का खेत है, जिससे तुम्हारा काॅर्न बनता है, यह आलू का खेत है जिसकी सब्ज़ी तुम्हारी माँ बनती है।” बालक हर फ़सल से परिचित हो रहा था। थोड़ी देर बाद मुझसे उसने पूछा, “नानी मीट का खेत कब आएगा?” मेरी हँसी छूटने वाली थी परन्तु मैंने अपने को रोक लिया। बालक की जिज्ञासा बहुत उचित थी, वह सोच रहा था कि ग्रॉसरी स्टोर पर मिलने वाली हर चीज़ खेत से आती है। यदि उसे जिज्ञासा न हो, प्रश्न न पूछे तो भला, हमें साधारण-सी लगने वाली, संसार की ये बातें उसे मालूम कैसे होंगी?
तो मित्रों अपने जीवन की ये दो पुरानी घटनाएँ तो मैंने आपके साथ साझा कीं, जिनसे मैंने बाल सुलभ जिज्ञासा के बारे में अपना पक्ष आपके सामने रखा।
अब सुनिए एक ताज़ा-तरीन–अभी उस दिन की बात है कि मैं मदर डेरी पर दूध ख़रीदने गई। मदर डेयरी कई तरह के दूध, अलग-अलग नाम से बेचती है, जैसे: डबल टोन्ड, टोन्ड, कॉउ मिल्क और एक अभी एकदम नया नाम ‘प्रो.मिल्क’। हम जिस विज्ञापन के युग में जी रहे हैं, उसमें ना चाहते हुए भी हम इनसे प्रभावित तो होते ही हैं। “बढ़ती उम्र में प्रोटीन की कमी हो सकती है” पहले इस ‘भय’ से हमें परिचित कराया गया और अब इस ‘भय’ का लाभ उठाने के लिए एक नए नाम से यह प्रो. मिल्क बेचा जा रहा है, जिसमें सामान्य दूध से अधिक प्रतिशत प्रोटीन का बताया जा रहा है।
कहावत है न, “कज्जल की कोठरी में कैसो भी सयानो जाए, कज्जल की एक रेख लगिहै पै लागिहै” तो हम भी अछूते नहीं हैं, विज्ञापनों की चकाचौंध से, और यही दूध लेना आरंभ कर दिया है।
तो जब मैं मदर डेरी के बूथ पर पहुँची तो एक 20-22 वर्ष का नवयुवक विक्रेता के स्थान पर था। उसने बताया कि ‘प्रो.मिल्क’ का पैकेट ख़त्म हो गया है और मुझसे पूछा, “दूसरा कोई दे दूँ?”
मुझे थोड़ी सी निराशा हुई। मैं ने यूँही धीरे से अपना अनुभव उसको बताया, “प्रो. मिल्क का दही बहुत अच्छा जमता है, इसलिए वही लेना चाहती थी!”
मेरी बात सुनकर वह कुछ परेशान हो गया और मेरी मदद करने मेरे एकदम पास आ गया और बोला, “आप तो दूध लेना चाहती है न, प्रो.मिल्क दूध है, उससे दही कैसे बनेगा?”
अब परेशान होने की बारी मेरी थी! मैंने उससे पूछा, “क्यों!, दूध से ही तो दही बनता है, मैं तो प्रो.मिल्क से दही बनाती हूँ!”
बेचारा लड़का मेरे बहुत पास आकर खड़ा हो गया, दुकान में उस समय और कोई ग्राहक नहीं था। वह बोला, “क्या सचमुच दही दूध से बनता है? कैसे बनता है?” उसकी बातें सुनकर थोड़ी देर तक तो मेरा दिमाग़ ही घूम गया! डेयरी के बूथ पर काम करने वाले बीस-बाइस बरस के लड़के को यदि यह ना मालूम हो कि दही दूध से बनता है तो ग़ज़ब ही है न! मन में तर्क-वितर्क चलने लगे! मैंने पहले तो बड़े ध्यान से उसके चेहरे को देखा, मेरे सफ़ेद बालों को देख कर मेरा मज़ाक तो नहीं उड़ा रहा है? परन्तु उसके चेहरे पर इस प्रकार के कोई चिह्न न थे। क्या इसकी आर्थिक स्थिति ऐसी है कि उसने दही नहीं खाया है! या फिर इसके घर में कभी दही जमाया नहीं गया? लड़का पढ़ा-लिखा मालूम पड़ता है, क्या इसने कभी स्कूल के दिनों में गाय पर निबंध नहीं लिखा? क्या अब स्कूल में दूध से बनने वाले पदार्थों का नाम नहीं सिखाया जाता है?
दूध, दही, आइसक्रीम से भरे हुए बूथ में क्या कभी इसके मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न नहीं हुई कि कौन सा पदार्थ कैसे बनाया जाता है?
यह घटना जब मैंने अपने पति को बताई तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी कि इस उम्र के लड़के हर समय मोबाइल देखते हैं। उनके आसपास या दुनिया में क्या हो रहा है, उसकी जिज्ञासा उन्हें एकदम नहीं होती!
यह भी सोचती हूँ कि क्या हर व्यक्ति की जिज्ञासा का स्तर अलग होता है? क्या मोबाइल की आदत में हमारे युवा पीढ़ी की जिज्ञासा का हनन कर दिया है वह अपने आसपास के परिवेश से कुछ ना सीख कर केवल व्हाट्सएप पर ज्ञान पर निर्भर होते हैं? क्या यह स्थिति भविष्य के प्रति आशंकित नहीं करती? ‘अ-जिज्ञासु’ समाज क्या कभी विकास कर पाएगा?
पाठकगण बताएँ कि इस स्तर के ‘अ-जिज्ञासु’ के सम्बन्ध में उनके क्या विचार हैं?
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लखनलाल पाल 2025/04/14 08:18 PM
सरोजिनी पाण्डेय जी, साहित्य कुंज पत्रिका में प्रकाशित आपका लेख 'मेरी जिज्ञासा' बाल मनोविज्ञान पर केंद्रित है। पहली दो घटनाएं तो विशुद्ध बाल मनोविज्ञान पर है पर तीसरी घटना किशोर अवस्था से आगे के बालक की है। आपके साथ ये घटित घटनाएं यह बताती हैं कि मानव स्वभाव से ही जिज्ञासु होता है। वह हर चीज जान लेना चाहता है। जिसे नहीं देखा है, जिसके बारे में इससे पहले नहीं जाना है और अचानक सामने आ जाए तो उसे जानने की उत्कट इच्छा जाग्रत हो जाती है। आपके बालक ने भैंस नहीं देखी थी, सुअर देखा था तो बालक को भैंस में बड़ा सुअर दिखाई दिया। मक्का, आलू खेत में उगते हैं तो मीट खेत में क्यों नहीं उगता है आदि ऐसे प्रश्न है जो बच्चे ने इससे पहले देखे ही नहीं थे। गांव के किसान या मजदूर के बेटे के लिए ये मामूली बात है। उसके लिए दुकान में रखा सामान कौतूहल पैदा करेगा। रही उस युवा वाली बात कि दूध से दही कैसे बनता है। वह इस प्रक्रिया को नहीं जानता है। मेरी समझ से यह कोई अनोखी बात नहीं है। वह इस बारे में नहीं जानता है तो मोबाइल के सारे फंक्शन जानता होगा। वह वहां पर भी जिज्ञासु ही होगा। जिज्ञासा किस ओर है ये महत्वपूर्ण है। अजिज्ञासु मनुष्य हो ही नहीं सकता है। अगर है तो वह एबनॉर्मल होगा। फिलहाल आपने बाल मनोविज्ञान का इतना स्वाभाविक चित्रण किया है कि मन कह उठता है - वाह! साहित्य कुंज में लेख प्रकाशित होने के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।