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मेरी माँ की होली

फागुन का महीना आते ही
माँ बहुत व्यस्त हो जाती थी, 
सर पर ले लेती काम कई, 
फिर सोच-सोच घबराती थी, 
 
झुन्नुमल के चौराहे पर
होलिका दहन का रेंड़ लगा, 
टूटी मचिया, चिटका बेलन
सब उसमें डाल के आने का! 
यह काम सभी बच्चों का था
पूरा घर जल्दी साफ़ करो, 
लकड़ी की टूटी सभी वस्तु
चौराहे पर जा ढेर करो!! 
 
घर में भी काम कई होते
आलू के पापड़-चिप्स बनें
चावल के सेव, चटक कांजी
लड्डू-खुरमा पकवान बनें
 
होली का सर्व प्रमुख व्यंजन
गुझिया का बना होता था
और इसे बनाने की ख़ातिर
पूरा कुनबा आ जुटता था, 
 
मैदा गूँधो, पूरी बेलो
मेवा, खोआ, तैयार करो
पानी से किनारा गिला कर
पूरी के अंदर उसे भरो, 
 
गुझिया बनती थी कनस्तर भर
हम कई दिनों तक खाते थे, 
और ले-लेकर तश्तरियों में
’अपनों’ के घर पहुंचाते थे, 
 
जब मिलने वाले आते थे
पकवान से प्लेटें सजती थीं
“सखियों से मेरी, कम तो नहीं“
यह मेरी अम्मा गिनती थीं
 
“राधा ने चार, सरला ने पाँच
और मैंने आठ बनाए हैं, 
मेरे सेवड़े ख़स्ता ज़्यादा, 
शीला के तो नरमाए हैं“
 
पकवानों की संख्या गिनकर
माँ अति-प्रसन्न हो जाती थी, 
सखियों से बढ़ कर होने से
उसकी ’होली’ हो जाती थी
 
ना साड़ी ना गहना कोई
ना घुले रंग की चाहत थी
दो बोल प्रशंसा के सुनकर
वह ’सराबोर’ हो जाती थी . . . 

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