अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

शरद पूर्णिमा तब और अब

 

शरद पूर्णिमा के शुभ संदेशों का प्रभात
जब आया, 
मुझे अपने बचपन के शरद पूनम का दिन
याद आया, 
पीतल की चमचमाती बटलोई में माँ दूध चढ़ाती थी, 
चावल मिश्री मेवे डाल मधुर क्षीरान्न बनाती थी, 
इलायची केसर की सुगंध हमें ख़ूब ललचाती थी, 
परन्तु दिनभर उस खीर का रस, 
रसना कहाँ ले पाती थी! 
संध्या समय
सूर्यास्त के बाद
जब हवा कुछ ठंडी हो जाती थी, 
खीर से भरी पतीली
छत पर ले जायी जाती थी, 
खीर का लालच
हमें छत पर खींच ले जाता था
कीट, पतंगों से खीर की रक्षा का काम
हमसे करवाया जाता था, 
हम भी इस काम में मुस्तैदी से लग जाते थे, 
कभी हथ-पंखा, कभी हाथ, 
और कभी अख़बार हिलाकर, 
खीर को दूषित होने से बचाते थे, 
इंतज़ार रहता था थाली जैसे चाँद के
आकाश में चढ़कर आने का, 
अपनी किरणें को खीर पर बरसा
उसे ‘अमृतमय’ बनाने का। 
 
सूरज के क्षितिज में ढलते ही
गोल उजला चाँद निकल आता था, 
हाँ! छत पर चढ़ने में थोड़ा समय
ज़रूर लगाता था। 
  
दूसरी तरफ़ पिताजी कुछ और भी समझाते थे, 
धवल शरद-चंद्रिका में हमसे धार्मिक पुस्तक पढ़वाते थे, 
बताते थे पिताश्री 
“यह शरद चंन्द्रिका” वरदायिनी है, 
हमारे नेत्रों की ज्योति बढ़ाने, 
पृथ्वी पर आई है
जो इसमें पढ़ेगा, 
सशक्त नेत्र पाएगा, 
विद्या का सच्चा अर्थ 
उसको ही समझ में आएगा, 
योगेश्वर कृष्ण की कृपा पढ़ने वालों पर बरसेगी, 
सकारात्मक ऊर्जा सदैव हृदय में सरसेगी। 
 
खीर के लोभ में हम यह सब कर गुज़र जाते थे, 
तब कहीं जाकर देर रात गए, 
अमृतमय क्षीर का रसास्वादन कर पाते थे। 

बचपन की याद कर 
मैंने भी खीर बनाई, 
शरद-चंद्रिका से बरसता, 
अमृत रस मिलाने को, 
छत के अभाव में, 
उसे फ़्लैट की बालकनी में रख आई। 
 
पर हाय रे विडंबना!!! 
ऐसा कुछ न हो पाया
प्रदूषण के कारण उजला चाँद
निकल ही नहीं पाया, 
शरद-पूर्णिमा का वह शुभ-निर्मल-
मधुर-मदिर पूर्ण चंद्र, 
जिसे देखकर आनंद मग्न हो गए थे, 
मोहन, श्री कृष्णचंद्र, 
किया था यमुना तट पर
मोक्षदायी! महारास
उस दिन पूरी कर दी थी
हर गोपीका के मन की आस, 
उस परम, अमृतमय इन्दु के दर्शन
हम कहाँ कर पाए? 
धुएँ, धूल, प्रदूषण से तो बेचारे
चंदामामा भी घबराए? 
मुख चन्द्र अपना वे आवरण से ढके रहे, 
करने को दर्शन उनका
पृथ्वीवासी तरसते रहे। 
हम अपने किये कर्मों पर ही
सिर धुन-धुन पछताए, 
अमृतरस की एक बूँद भी
हम कहाँ चख पाए? 

त्योहार का सच्चा अर्थ तिरोहित होगया। 
अब तो व्हाट्सएप। पर केवल संदेश भेजना
और पाना ही रह गया! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

यात्रा-संस्मरण

ललित निबन्ध

काम की बात

वृत्तांत

स्मृति लेख

सांस्कृतिक आलेख

लोक कथा

आप-बीती

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं