अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पुराना दोस्त

 

भोपाल से दिल्ली आते
‘शताब्दी’ एक्सप्रेस की खिड़की से
बाहर की ओर ताकते हुए, 
आज बहुत अरसे बाद, 
सूरज से मुलाक़ात हो गई, 
 
फ़सल की कटाई के बाद
ख़ाली हो गए धान के खेतों से होकर, 
ऊँचे पेड़ों, छोटी झाड़ियाँ को फलाँगते हुए
वह मेरे पास, मेरी खिड़की में आया था, 
मुझसे बतियाने को शायद उसका मन हो आया था!, 
 
मेरा और उसका परिचय तो बहुत पुराना था, 
बालपन में उससे रोज़ का ही मिलना-मिलाना था, 
लेकिन जीवन की भाग-दौड़
महानगरी के निवास
वहाँ के प्रदूषण के कारण
मेरी स्मृतियों में उसका चेहरा कुछ धुँधलाया था, 
 
पर आज इस पल, रेलगाड़ी की
मेरी खिड़की का सूरज चमाचम चमकता, 
मुझे बचपन के साथी की याद दिलाता था, 
ट्रेन की खिड़की से, खेतों में दौड़ 
लगाते, 
पेड़ों पर उछलते
सयाने सूरज का सिंदूरी, गोल, पहचाना चेहरा 
मेरी आँखों में जगमगाता था, 
 
उसने पूछा मुझसे, 
दौड़ते ही दौड़ते, 
“कैसी हो? अब तो जल्दी नज़र नहीं आती, 
अपने माँ-बाप से छिपकर, 
मुझसे क्यों नज़रें नहीं मिलातीं?” 
मुझे नंगी आँखों से ताकने पर 
अब तो किसी से डाँट नहीं खातीं! 
 
मैंने भी उसे छोड़ा नहीं, शिकवा सुना दिया, 
“तुमने ही जल्दी-जल्दी
आकाश की यात्रा कर
दिन-दिन करते, मेरी उम्र को क्यों बढ़ा दिया? 
कहो तो ज़रा कैसे खेलती तुम्हें देखकर, 
पाल रही थी बच्चे, 
करती थी गृहस्थी जी-जान जो लगाकर!”
 
बचपन का मेरा वह साथी मुँहज़ोर था
चुप नहीं रह पाया, 
बात को उसने ही फिर से आगे बढ़ाया, 
“बच्चे तुम्हारे बड़े हुए
गृहस्थी हुई पुरानी, 
अब तक तुम बन चुकी हो दादी और नानी, 
नींद भी अब तुमको थोड़ी कम ही है आती
फिर क्यों रोज़ छत पर मुझसे मिलने नहीं आतीं?” 
 
मैं भी भला चुप रह कर कैसे सुन लेती? 
शिकायत का जवाब तुरत कैसे नहीं देती? 
“अपनी भी सोचो सिर्फ़ मेरी क्यों कहते हो? 
मेरे शहर में तो तुम भी घबराए से ही रहते हो! 
प्रदूषण के कारण आकाश में नहीं आते, 
छत पर हम आएँ भी तो तुम्हारे दर्शन नहीं पाते! 
विंध्य-सतपुड़ा के बीच की
स्वच्छ हवा तुमको ख़ूब भायी है? 
इसलिए ही तुमने मुझसे यहाँ मिलने के लिए
यह लंबी दौड़ लगाई है! 
दोस्त, तुम्हारी सूरत तो
बिल्कुल नहीं बदली, 
पर देखो तो ज़रा मुझको! 
मेरे बालों में सफ़ेदी उतर आई है, 
रोज़ छत पर जाना क्या इतना आसान है? 
देखते तो तुम भी हो 
वह बहुमंज़िला मकान है, 
घुटनों में इतनी जान कहाँ 
जो कई बार छत पर आऊँ? 
धुँधलाये से तुम भी रहते हो, भला
नज़रें कैसे मिलाऊँ?” 
इतना कहकर मैं मौन हो गई 
बीते हुए समय की यादों में खो गई, 
 
गाड़ी ने दिशा बदली
मेरी खिड़की का सूरज भी भाग गया 
आगे आने वाली पीढ़ियों से दोस्ती बढ़ाने के लिए
न जाने किस देश, किस गाँव को चला गया। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

ललित निबन्ध

कविता

सांस्कृतिक कथा

आप-बीती

सांस्कृतिक आलेख

यात्रा-संस्मरण

काम की बात

यात्रा वृत्तांत

स्मृति लेख

लोक कथा

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं