अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पीड़ा से उपजा काव्य—वाल्मीकि रामायण

 

 

“वियोगी होगा पहला कवि, आह! से उपजा होगा गान, 
 निकलकर नयनों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान!”

कविवर सुमित्रानंदन पंत जी की इन पंक्तियों से हिंदी के साहित्यकार और साहित्य प्रेमी अवश्य परिचित होंगे। इन पंक्तियों का भाव है कि कविता हृदय से उत्पन्न होती है न कि बुद्धि से, पीड़ा ही हृदय में करुणा और सहानुभूति और विषाद की जन्मदात्री है। आदिकाल से पूज्य मानी जाने वाली “श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण” के भी लिखे जाने की ऐसी ही रोचक कथा है। 

ऋषि वाल्मीकि के पीड़ित हृदय से श्राप रूप निकले उद्गार ही राम की कथा लिखने की प्रेरणा बने। कथा कुछ इस प्रकार है:

निरंतर तपस्या और स्वाध्याय में लीन रहने वाले वाल्मीकि ऋषि ने एक बार नारद जी से पूछा, “संसार में गुणवान, वीर, धर्मज्ञ परोपकारी, सत्यवक्ता और दृढ़ प्रतिज्ञ व्यक्ति कौन है? जो सभी प्राणियों का हित चाहता हो, जो समर्थ हो और देखने में भी सुंदर हो। जो क्रोध न करता हो, जो किसी की निंदा न करता हो और संग्राम में जिसकी बराबरी देवता भी न कर सकेंं, ऐसे किसी समर्थ पुरुष की कथा मैं सुनना चाहता हूँ।” वाल्मीकि के मुख से यह सब बातें सुनकर नारद जी ने वाल्मीकि को राम की कथा सुनायी, कैसे पिता का वचन पालन करने के लिए वे राजा बनते-बनते चौदह वर्ष के लिए वनवास में चले गए। उनके 14 वर्ष के वनवास की संपूर्ण कथा और सीता की अग्नि परीक्षा तक की कथा उन्होंने वाल्मीकि को कह सुनायी। 

यह कथा सुनने के बाद वाल्मीकि ने अपने शिष्य भरद्वाज के साथ नारद जी की ससम्मान पूजा अर्चना की और नारद जी मुनि से विदा लेकर आकाश मार्ग से चले गए। 

कथा सुनने के बाद वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर पहुँचे। तमसा नदी का तट स्वच्छ और शांत था। यहाँ वाल्मीकि ने स्नान करने की सोची। अपने शिष्य से अपने वल्कल वस्त्र लेकर में कुछ देर इधर-उधर घूमते हुए नदी के आसपास के वन और सुंदर तट का आनंद लेने लगे। 

वहाँ एक युवा सारस पक्षी का जोड़ा विहार कर रहा था। नर सारस अपने नृत्य और भाव-भंगिमाओं से मादा सारस को लुभाने-रिझाने का प्रयत्न कर रहा था। मादा सारस भी अपने साथी की कलाएँ देखकर प्रसन्न हो रही थी। ऐसी मान्यता है कि सारस जीवन में केवल एक बार ही अपना जोड़ा बनाते हैं। ऋषि अभी इस सुंदर दृश्य का आनंद ले ही रहे थे कि सहसा एक तीर आकर नर सारस की छाती में लगा। वह ख़ून से लथपथ होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और पंख फड़फड़ाता हुआ तड़पने लगा। अपने साथी की हत्या हुई देखकर उसकी पत्नी सारसी भी करुणा जनक स्वर में चीत्कार कर उठी। ऋषि का कोमल हृदय इस हत्या को देखकर दुख से भर गया। तभी अपने शिकार को उठाने के लिए बहेलिया आ पहुँचा। नर पक्षी का लहूलुहान शरीर और मादा सारस का विलाप, ऋषि के कोमल हृदय को चीर गया था। वह बोल उठे, “यह अधर्म हुआ है।”

हत्यारे बहेलिए को देखकर उनके मुँह से निकल पड़ा: 

“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥”

(“निषाद! तुझे नित्य-निरंतर-कभी शान्ति न मिले क्योंकि तूने प्रेम में डूबे हुए सारस के जोड़े में से एक की, बिना किसी अपराध के ही, हत्या कर डाली है।”) 

परन्तु जैसे ही ऋषि ने यह बात कही और इस पर विचार करने लगे तो उनके हृदय में पश्चाताप हुआ। उन्होंने सोचा, “इस पक्षी के शोक से पीड़ित होकर मैंने यह क्या कह डाला!” कुछ देर विचार करने के बाद ऋषि ने अपने शिष्य से कहा, ‘हे पुत्र शोक से पीड़ित होने पर मेरे मुख से जो वाक्य निकल पड़ा है वह चार चरणों में आबद्ध है। इसके प्रत्येक चरण में बराबर-बराबर (यानी 8-8) अक्षर हैं! इसे वीणा की लय पर गाया भी जा सकता है। अतः यह मेरा वचन श्लोक रूप (श्लोक नामक एक काव्य छंद) होना चाहिए, है न!”

उनकी इस बात का समर्थन भरद्वाज ने भी किया इस बात से मुनि कुछ संतुष्ट हुए। 

स्नान करने के बाद वाल्मीकि जी अपने आश्रम लौट गए। वे स्वयं को व्यस्त रखने का प्रयास तो कर रहे थे लेकिन उनके हृदय से क्रौंच पक्षी की असमय हत्या, सारसी की साथी से बिछुड़ने की पीड़ा, अपना दिया हुआ श्राप, और अपने मुख से अनायास ही निकले हुए छंद ‘श्लोक’ की बात दूर नहीं हो पा रही थी। निषाद को दिया गया श्राप उनकी पीड़ा को बढ़ा रहा था, कुछ भी हो बहेलिये का तो काम ही है पक्षियों का शिकार करना। 

अचानक वाल्मीकि के आश्रम में चतुर्मुख ब्रह्मा जी का प्रकट हुए। पहले तो अपने ही ध्यान में डूबते-उतराते ऋषि अचकचा गए परन्तु कुछ समय बाद अपने को सँभाल कर उन्होंने ब्रह्मा जी को उचित आसन पर बैठाया और उनकी पूजा अर्चना की। 

फिर स्वयं भी उनकी अनुमति पाकर आसन पर बैठे। 

ब्रह्मा जी ने वाल्मीकि की उदासी और अनमनेपन का कारण पूछा। वाल्मीकि ने तमसा के तट पर घटी पूरी घटना ब्रह्मा जी को सुना दी। अपने दिए हुए श्राप के अनौचित्य और अपनी ग्लानि की बात भी उन्होंने ब्रह्मा जी को बतायी और स्वयं फिर उदासी में डूब गए। 

कुछ समय विचार करने के बाद ब्रह्मा जी ने हँसकर ऋषि से कहा, ” मुनिवर, तुम्हारे मुख से निषाद के प्रति 
श्राप रूप निकले छंदोबद्ध शब्द श्लोक रूप में जाने जायेंगे। अब यह पीड़ा तुम अपने हृदय से निकाल दो क्योंकि मेरी प्रेरणा से ही तुम्हारे मुख से ऐसी वाणी निकली थी। अपनी ग्लानि का अंत करने के लिए तुम श्री राम के चरित्र का वर्णन इस श्लोक की विधा के माध्यम से करो। जो कथा तुमने नारद के मुख से सुनी है उसको जन-जन में प्रसारित करने के लिए काव्य रूप में उसे संरक्षित करो। जब तक सृष्टि रहेगी तब तक तुम्हारा नाम इस रचना के कारण अमर रहेगा।”

ब्रह्मा जी के मुख से ऐसी बातें सुनकर वाल्मीकि जी ने ग्लानि से मुक्ति पाने के लिए। निश्चय किया कि वह श्लोक विधा में राम के चरित्र की “रामायण महाकाव्य” के रूप में रचना करेंगे। 

यह है कहानी संस्कृत के ‘पहले श्लोक’ की, जिसके कारण वाल्मीकि को ‘आदि कवि’ (प्रथम) माना जाता है।

प्रबुद्ध पाठक गण, आशा है यह कहानी आपको रोचक लगी होगी। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

 छोटा नहीं है कोई
|

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गणित के प्रोफ़ेसर…

अंतिम याचना
|

  शबरी की निर्निमेष प्रतीक्षा का छोर…

अंधा प्रेम
|

“प्रिय! तुम दुनिया की सबसे सुंदर औरत…

अपात्र दान 
|

  “मैंने कितनी बार मना किया है…

टिप्पणियाँ

Vinod Pandey 2024/07/11 11:27 AM

अति सुन्दर साधु। साधु

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

ललित निबन्ध

कविता

सांस्कृतिक कथा

आप-बीती

सांस्कृतिक आलेख

यात्रा-संस्मरण

काम की बात

यात्रा वृत्तांत

स्मृति लेख

लोक कथा

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं