अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मेरा क्षितिज खो गया!

 

उस दिन मैंने संकष्टी चतुर्थी का त्योहार मनाया, 
शक्ति-सामर्थ्य भर, शुद्ध-पवित्र हो
दिनभर उपवास का मैंने संकल्प उठाया, 
विघ्नहर्ता-विनायक के सम्मुख अपना निवेदन सुनाया, 
“हे गणेश, हे गणपति, जग पर अपनी कृपा करो, 
हर माता की संतति की कष्टों से रक्षा करो!”
 
दिन भर निराहार रह, गणपति का ध्यान कर, 
मैंने तिल गुड़ के पकवान बनाए, 
कई फल, हल्दी-दूर्वा आदि थाली में सजाए। 
 
अब प्रतीक्षा थी मुझे, चंद्रमा के आने की
चन्द्र-दर्शन करके व्रत को पूर्णता दिलाने की, 
गूगल-गुरु ने बताया था
चाँद नौ के बाद आएगा, 
मैंने विचार किया—‘साढ़े-नौ’ तक तो 
उसका ‘दर्शन’ मिल जाएगा!”
 
चन्द्रोदय के समय पर, 
मन में ‘दर्शन’ चाह, हाथों में पूजा की थाली लेकर, 
चढ़ गई मैं तिमंज़िले घर की अटारी पर, 
 
पूरब की दिशा में मैंने सावधानी से नज़रें घुमायीं, 
मुझे तो हर ओर बस बिजली की चमक 
और बहुमंज़िली इमारतें ही नज़रआयीं!, 
 
‘नवोदित’ बाल सूर्य-चंद्र तो क्षितिज में ही होते हैं? 
युवा होने पर ही वे मध्याकाश में चढ़ते हैं! 
उनको देखने से भी भला कहीं ‘दर्शन’ के ‘पुण्य’ मिलते हैं? 
 
यह सब सोच कर मन मेरा उदास हो गया, 
दिन भर का मेरा व्रत अपूर्ण ही रह गया? 
मन में इक फाँस चुभी, 
शहरीकरण की इस अंधी दौड़ में, 
मेरे नयनों में बसा, स्वर्णिम किरणों से भासित ‘शिशुचन्द्र’, 
मेरे क्षितिज के साथ ही कहीं खो गया!

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

ललित निबन्ध

सांस्कृतिक कथा

आप-बीती

सांस्कृतिक आलेख

यात्रा-संस्मरण

काम की बात

यात्रा वृत्तांत

स्मृति लेख

लोक कथा

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं