अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

दोपहरी जाड़े वाली

 

दुपहरी नाम से बस याद आती है हमें गर्मी, 
हवाएँ गर्म पंखे की, न दे कूलर भी कुछ नर्मी
 
निकलना हो अगर बाहर ज़रूरत चश्मे-छाते की, 
बनानी हो अगर रोटी तो आए या नानी की, 
जो बच्चे निकलें बाहर, डाँट खायें घर में अपनों की, 
“पियो पानी लगाओ परत तन पर ‘धूप-पर्दे’ की!”
 
है अपना देश रँगीला, यहाँ मौसम रँगीले हैं, 
कभी तपते, कभी थर-थर कभी, भादों से भीगे हैं, 
कभी लादें रजाई और कभी मलमल भी भारी है, 
कभी शरबत, कभी घेवर, कभी पूड़ी की बारी है, 
 
जहाँ गर्मी की दोपहरी हमें भीतर भगाती है, 
वहीं सर्दी की दोपहरी हमें बाहर बुलाती है। 
 
सुनहरी धूप जब हँस कर पेड़ों पर बिखरती है, 
हमें भी दुलरा-गर्मा कर वही बाँहों में भरती है, 
सुनहरी धूप सर्दी की हमें! दीदी-सी लगती है, 
झलक पाते ही इसकी, बहनें सजधज निकलती हैं। 
 
बग़ीचे गर्मियों की धूप में वीरान लगते हैं, 
वही सर्दी की दोपहरी में खिलते और विहँसते हैं। 
कहीं बच्चे फुदकते-हँसते-लड़ते और रोते हैं
कहीं मित्रों में क़िस्से चटपटे, रस-दार होते हैं, 
 
मेरी हमउम्र सखियों का भी इक दल मिलता है, 
बग़ीचे में पड़ी बेंचों पे यह आसन जमता है, 
छुअन जब धूप की तन-मन में नव-स्फूर्ति भरती है, 
हँसी आ करके तब हम सब के होंठों पर थिरकती है। 
 
कभी जा बैठते हैं हम सभी बचपन के बरसों में, 
जवानी के रसीले दिन कभी हम याद करते हैं
कभी बदला ज़माना झिड़कियाँ हम सबकी खाता है
कभी यह प्रश्न? कंप्यूटर चलाना किसको आता है? 
कभी गाने पुराने बॉलीवुड के गुनगुनाते हैं
कभी बे-बात यूँ ही खुलके हम सब खिल-खिलाते हैं।
 
कभी मन दौड़ जाता है प्रवासी बेटी-बेटों तक, 
मगर फिर जल्द ही वापस यहीं हम लौट आते हैं। 
कभी होते हैं चर्चे गहने-कपड़े और व्यंजन के, 
कभी आध्यात्म की राहों पर दो पग हम बढ़ाते हैं। 
 
कई बातें जो पर्दापोश थीं पिछले ज़माने की, 
उन्हीं बातों को हम इन महफ़िलों में आम करते हैं, 
कभी बिछुड़े हुओं को याद कर मायूस होते हैं, 
कभी परिवार बढ़ने की ख़ुशी में मस्त होते हैं। 
 
कहूँ कैसे की कितनी रंगीभरी होती है यह महफ़िल! 
यहाँ से नित नया जीवन सभी घर लेके जाते हैं। 
 
पिघल जाएगी यह महफ़िल, तपेगा सूर्य जब नभ में, 
सिमट जाएँगी सब सखियाँ, घरौंदे अपने-अपनों में, 
दहक उठेंगे दिन, रातें तपेंगी तेज़ गर्मी में, मगर 
आ जाएगी बारिश भी, सावन के महीने में, 
 
बँधेगी आस हम सबको कि फिर कार्तिक भी आएगा, 
औ' अपने पीछे-पीछे सर्द सा मौसम भी लाएगा। 
खिलेगी धूप उपवन में, हमें वह फिर बुलाएगी, 
महीनों बाद महफ़िल दोपहर में फिर जमाएगी। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

ललित निबन्ध

सांस्कृतिक कथा

आप-बीती

सांस्कृतिक आलेख

यात्रा-संस्मरण

काम की बात

यात्रा वृत्तांत

स्मृति लेख

लोक कथा

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं