दोपहरी जाड़े वाली
काव्य साहित्य | कविता सरोजिनी पाण्डेय15 Jan 2025 (अंक: 269, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
दुपहरी नाम से बस याद आती है हमें गर्मी,
हवाएँ गर्म पंखे की, न दे कूलर भी कुछ नर्मी
निकलना हो अगर बाहर ज़रूरत चश्मे-छाते की,
बनानी हो अगर रोटी तो आए या नानी की,
जो बच्चे निकलें बाहर, डाँट खायें घर में अपनों की,
“पियो पानी लगाओ परत तन पर ‘धूप-पर्दे’ की!”
है अपना देश रँगीला, यहाँ मौसम रँगीले हैं,
कभी तपते, कभी थर-थर कभी, भादों से भीगे हैं,
कभी लादें रजाई और कभी मलमल भी भारी है,
कभी शरबत, कभी घेवर, कभी पूड़ी की बारी है,
जहाँ गर्मी की दोपहरी हमें भीतर भगाती है,
वहीं सर्दी की दोपहरी हमें बाहर बुलाती है।
सुनहरी धूप जब हँस कर पेड़ों पर बिखरती है,
हमें भी दुलरा-गर्मा कर वही बाँहों में भरती है,
सुनहरी धूप सर्दी की हमें! दीदी-सी लगती है,
झलक पाते ही इसकी, बहनें सजधज निकलती हैं।
बग़ीचे गर्मियों की धूप में वीरान लगते हैं,
वही सर्दी की दोपहरी में खिलते और विहँसते हैं।
कहीं बच्चे फुदकते-हँसते-लड़ते और रोते हैं
कहीं मित्रों में क़िस्से चटपटे, रस-दार होते हैं,
मेरी हमउम्र सखियों का भी इक दल मिलता है,
बग़ीचे में पड़ी बेंचों पे यह आसन जमता है,
छुअन जब धूप की तन-मन में नव-स्फूर्ति भरती है,
हँसी आ करके तब हम सब के होंठों पर थिरकती है।
कभी जा बैठते हैं हम सभी बचपन के बरसों में,
जवानी के रसीले दिन कभी हम याद करते हैं
कभी बदला ज़माना झिड़कियाँ हम सबकी खाता है
कभी यह प्रश्न? कंप्यूटर चलाना किसको आता है?
कभी गाने पुराने बॉलीवुड के गुनगुनाते हैं
कभी बे-बात यूँ ही खुलके हम सब खिल-खिलाते हैं।
कभी मन दौड़ जाता है प्रवासी बेटी-बेटों तक,
मगर फिर जल्द ही वापस यहीं हम लौट आते हैं।
कभी होते हैं चर्चे गहने-कपड़े और व्यंजन के,
कभी आध्यात्म की राहों पर दो पग हम बढ़ाते हैं।
कई बातें जो पर्दापोश थीं पिछले ज़माने की,
उन्हीं बातों को हम इन महफ़िलों में आम करते हैं,
कभी बिछुड़े हुओं को याद कर मायूस होते हैं,
कभी परिवार बढ़ने की ख़ुशी में मस्त होते हैं।
कहूँ कैसे की कितनी रंगीभरी होती है यह महफ़िल!
यहाँ से नित नया जीवन सभी घर लेके जाते हैं।
पिघल जाएगी यह महफ़िल, तपेगा सूर्य जब नभ में,
सिमट जाएँगी सब सखियाँ, घरौंदे अपने-अपनों में,
दहक उठेंगे दिन, रातें तपेंगी तेज़ गर्मी में, मगर
आ जाएगी बारिश भी, सावन के महीने में,
बँधेगी आस हम सबको कि फिर कार्तिक भी आएगा,
औ' अपने पीछे-पीछे सर्द सा मौसम भी लाएगा।
खिलेगी धूप उपवन में, हमें वह फिर बुलाएगी,
महीनों बाद महफ़िल दोपहर में फिर जमाएगी।
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