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 तेरह लुटेरे

मूल कहानी: इ ट्रेडेसी ब्रिगांनटी; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द थर्टीन बैंडिट्स); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

प्रिय पाठक गण,

यदि आप 'साहित्य कुंज' के नियमित पाठक हैं, तो शायद आपने ध्यान दिया हो कि पिछले कई अंकों में मेरे द्वारा अनूदित इतालवी लोककथाएँ प्रकाशित होने का अवसर पा रही हैं। ये लोककथाएँ इतालो काल्विनो के मूल संग्रह के अंग्रेजी अनुवाद से अनूदित हैं। आज जो कहानी मैं आपको सुनाने जा रही हूँ उसकी तुलना आप 'अलीबाबा-चालीस चोर' से करिएगा। यह कथा, संग्रहकर्ता को इटली के 'बेसिलिकाटा' प्रांत से मिली जो कि इटली का धुर दक्षिणी प्रांत और लोनियन और टिरेनियन नामक सागरों से घिरा है। यहाँ पोतों की आवाजाही तो अवश्य रही होगी। शायद कथा के साम्य कारण यहाँ आने -जाने वाले व्यापारी और नाविक हों!

अब यह कथा 'अरेबियन नाइट्स' की कथा से प्रभावित है या इसने उसे प्रभावित किया है, इस सत्य का उद्घाटन तो इतिहासविदों की खोज का विषय हो सकता है। आप तो बस इस कथा का आनंद लीजिए और थोड़ी देर बुद्धि-विलास कीजिए—

 

एक समय की बात है, दो भाई थे। एक था धनवान मोची और दूसरा ग़रीब किसान। एक दिन जब किसान अपने खेतों की ओर जा रहा था तो उसने एक बरगद के पेड़ के नीचे तेरह आदमियों को देखा, जिनके हाथों में छुरे थे और सभी की शक्ल इतनी डरावनी थी कि कमज़ोर दिल वाला तो मर ही जाए। डाकू! लुटेरे! बेचारा किसान डर गया और झाड़ियों में छुप कर बैठ गया। उसने देखा कि वे सब बरगद के मोटे तने तक गए और उनका मुखिया बोला, "प्यारे बरगद जग-जा, जग-जा," और ऐसा लगा मानो बरगद जम्हाई लेता हुआ जाग गया, उसका मुँह खुल गया। एक-एक कर सारे लुटेरे उसके भीतर घुस गए। 

किसान अपनी जगह से हिला तक नहीं, चुपचाप बैठा देखता रहा। कुछ देर बाद वे सभी बाहर निकल आए, मुखिया सबसे पीछे था, वह फिर बोला, "प्यारे बरगद सो-जा, सो-जा" और बरगद का तना फिर बंद हो गया, मानो कभी खुला ही न था। 

जब डाकू चले गए तो किसान ने भी वही सब कुछ दोहराने की सोची। वह पेड़ के पास जाकर बोला, "प्यारे बरगद जग-जा, जग-जा" अरे वाह! बरगद का तना खुल गया। किसान अंदर गया, वहाँ सीढियाँ थीं, जो नीचे की ओर जा रही थीं। वह नीचे उतरते हुए, एक गुफा में पहुँच गया, जहाँ फ़र्श से छत को छूते हुए तेरह खज़ानों के ढेर थे, जिनमें सोना, हीरा, अशर्फ़ियाँ और अनेक दूसरे क़ीमती जवाहरात भरे थे। बेचारे किसान की आँखें फटी की फटी रह गईं।। कुछ देर में जब चेत आया, तो उसने अपनी जेबें भरने शुरू कीं, कोट की जेबें, कुर्ते की जेबें, पाजामे की जेबें, पाजामे का नेफ़ा, जहाँ भी जगह महसूस हुई, वह धन भरता रहा। बाहर निकलकर "प्यारे बरगद सो-जा, सो-जा" कहा और जब तना बंद हो गया तो भचकता, लंगड़ाता घर को चला। हर जगह खज़ाना भरा था,सो चाल कैसे सीधी रहती!

"हाय, हाय, तुम्हें क्या हो गया!" उसकी पत्नी ने डरते हुए पूछा। किसान ने अपने सारी जेबें ख़ाली करते हुए सारा क़िस्सा बीवी को कह सुनाया। उन्हें लगा कि खज़ाना गिनने से अच्छा है, इसे नाप लिया जाए। तो उनके घर में तो ऐसा कोई माप था नहीं, सो उसने पत्नी को अपने भाई के घर, शराब नापने का नपना माँग लाने के लिए भेज दिया। मोची ने सोचा कि, 'आज मेरे इस ग़रीब भाई को ऐसा क्या नापने की ज़रूरत आन पड़ी जो उसने नपना माँगा है?' उसने चुपके से नपने की पेंदी में मछली का कांटा चिपका दिया। नपना उसे वापस मिला तो, तुरंत ही उसने देखना चाहा कि मछली के कांटे में क्या फँसा? पेंदी में अशर्फ़ी फँसी देखकर उसकी जो हालत हुई वह तो देखने लायक़ थी। 

वह तुरंत भागा-भागा भाई के पास जा पहुँचा, "मुझे बताओ तुम धन कहाँ से लाए?" और, सीधे-भोले किसान भाई ने सब कुछ बता दिया। मोची बोला, "भैया तुम्हें तो मेरी मदद करनी चाहिए। मुझे बच्चे भी तुमसे ज़्यादा है। मुझे पैसों की सख़्त ज़रूरत है। वहाँ मुझे भी ले चलो।"

अगले दिन दोनों भाई दो खच्चरों पर चार थैले टाँग कर, बरगद के पास पहुँच गए। "प्यारे बरगद जग-जा, जग-जा'" कहकर द्वार खोला। भीतर जाकर थैले भरे, खच्चरों पर खज़ाना लाद, दोनों वापस घर लौट आए। मिलजुल कर दोनों ने सोना, हीरा और अशर्फ़ियाँ आपस में बाँट लीं। अब सुख से जीने लायक़ उनके पास भरपूर धन था। उन्होंने तय किया, "अब हमारे पास बहुत कुछ है, हमें वहाँ जाने की बात सोचनी तक नहीं है। हमें मरना थोड़े ही है।" 

परंतु मोची था लालची, उसकी प्यास कभी न बुझने वाली थी। वह दोबारा वहाँ चला गया। वह लुटेरों के बाहर निकलने का इंतज़ार करता रहा। जब वे बाहर निकले तो उन्हें गिनना भूल गया। तेरह की जगह केवल बारह ही बाहर निकले, एक भीतर पहरा देने के लिए रह गया था। क्योंकि उन्हें खज़ाने के कम होने का पता चल गया था। जब मोची अंदर घुसा तो लुटेरा उस पर टूट पड़ा और मोची को सूअर की तरह काट कर उसके चार टुकड़े कर पेड़ की डालियों पर लटका दिया। 

जब शाम तक मोची घर नहीं लौटा, तब उसकी घरवाली किसान के घर गई और बोली, "भाई साहब जी! आपके भाई को कुछ हो गया, लगता है। वह उस बरगद के पेड़ तक गए थे, पर अभी तक घर नहीं लौटे।" 

किसान ने रात गहराने तक का इंतज़ार किया और भाई की तलाश में फिर बरगद तक गया। वहाँ उसने डालियों पर अपने भाई की लाश के टुकड़े लटकते देखे। उसने उन्हें इकट्ठा किया और अपने खच्चर पर लाद कर घर ले आया। उसके शव का अंतिम संस्कार करने से पहले उसे जोड़ना ज़रूरी था। उन्होंने मोची के मित्र, एक दूसरे मोची को बुलाया, जिसने टुकड़ों को अच्छी तरह सिल दिया और संस्कार हो गया।

अब मोचिन ने बचे पैसों से एक सराय बनवाई और 'सरायवाली' बनकर ज़िंदगी गुज़ारने लगी। 

इधर लुटेरे खज़ाने का पैसा पाने वाले की तलाश में बस्ती की ख़ाक छान रहे थे। ऐसा करते हुए एक डाकू का जूता टूट गया तो वह जूता सिलवाने के लिए मोची के पास गया और बोला," मित्र क्या तुम मेरा यह जूता सिल पाओगे?" मोची कुछ चिढ़कर बोला, "तुम मज़ाक तो नहीं कर रहे? मैंने तो एक मोची को ही सिल दिया था, तुम जूते की क्या बात पूछते हो?"

"कौन था वह मोची?"

"मेरा ही साथी था। बेचारे को किसी ने टुकड़े-टुकड़े कर दिया। वह उस सराय की मालकिन का पति था।"

बस डाकुओं को पता चल गया कि खज़ाने का लूटा हुआ धन किसको मिला है। उन्होंने एक लकड़ी का बहुत बड़ा डोल बनवाया। उसमें ग्यारह लुटेरे छुप कर बैठ गए, दो उस डोल को गाड़ी पर लाद कर गाड़ीवान बनकर ले चले। सराय के आगे जाकर वे रुके। एक लुटेरा मालकिन के पास जाकर बोला, "देवी जी, क्या हम कुछ देर के लिए इस डोल को यहाँ रख आराम कर सकते हैं? हमें खाना भी चाहिए।"

"क्यों नहीं! आराम से भीतर आइए, तब तक मैं खाने का प्रबंध करती हूँ," ऐसा कहकर उसने गाड़ी वालों के लिए खिचड़ी बनाने के लिए पानी उबलने चढ़ा दिया।

उधर राम जी की माया देखिए! सराय की मालकिन की बेटी डोल के पास ही खेल रही थी। उसने ढोल से आती खुसफुसाहट सुनी, तो ध्यान से सुनने लगी। 'अब हम इस औरत को मज़ा चखाएँगे!' यह सुनकर बिटिया रानी भागी-भागी माँ के पास आई और सारी बात बता दी। माँ ने आव देखा ना ताव, खिचड़ी के लिए चढ़ाये पानी की पतीली का खौलता पानी, डोल में डाल दिया।

दोनों गाड़ीवान बने लुटेरों के लिए खिचड़ी बनाई और उसमें भाँग मिला दी। जब वे दोनों खिचड़ी खा कर नशे की गहरी नींद सो गए, तो उनकी गर्दन धड़ से अलग कर दी। 

फिर बेटी को क़ाज़ी को बुलाने भेज दिया। क़ाज़ी ने आते ही तेरहों लुटेरों को पहचान लिया।

ऐसी वीरता और बुद्धिमानी का काम करने के लिए सरायवाली को इनाम देने की घोषणा कर दी।

तो मेरे प्यारो! इस बार की कहानी यहीं ख़त्म, फिर मिले तो लाऊँगी एक और कहानी। हो सकता है वह हो मेरी नानी वाली कहानी!! 

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